Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 103
________________ । संवत्सर की बीसवीं सदी के अन्त में छपा यह महाकाव्य संस्कृत जगत् में बहुत कम चर्चित हुआ है। जयोदय काव्य के चर्चित न होने का एक कारण उसका जैन पौराणिक कथानक भी है जिससे संबंधित साहित्य- आचार्य जिनसेन और गुणभद्र के आदि पुराण, महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण, कवि हस्तिमल्ल के विक्रान्त कौरव नाटक, वादिचन्द भट्टारक के सुलोचना चरित तथा ब्रह्मचारी कामराज और ब्रह्मचारी प्रभुराज के जयकुमार चरितों के अलावा पुण्यास्रव कथाकोश में पूर्व से ही निबद्ध है। फिर भी जब यह महाकाव्य मूलरूप में छपा तो काशी और जयपुर आदि में जयोदय के महाकवि को असाधारण कोटि का कवि माना गया और पाली-मारवाड़ में जन्में महाकवि माघ की तरह राणोली-सीकर (दशवीं सदी का ग्राम राण पल्लिका) में जन्में महाकवि भूरामल को प्रचारित-प्रसारित करने की अपेक्षा बनीं। इसलिये सर्वप्रथम काव्य के हार्द को समझने के लिए स्वयं कवि से स्वोपज्ञ टीका लिखने का आग्रह किया गया और टीका लिखे जाने से पूर्व ही कुमायूं विश्व विद्यालय में महाकवि भूरामल की काव्य कृतियों पर एक पीएच० डी० थीसिस स्वीकृत हो गया जो ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । उसके बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से जयोदय महाकाव्य पर भी पीएच० डी० ऐवार्ड हो गई। वस्तुतः जयोदय महाकाव्य में अभिव्यजंक भाषा, उक्ति वैचित्र्य, विदग्ध शैली, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, लोकोक्ति, सूक्ति और वर्ण-विन्यास जिसमें प्रायः सभी भेदविभेद जैसे रूढ़ि वैचित्र्य, पर्याय वक्रता, विशेषण वक्रता, संवृत्ति वक्ता, वृत्ति वैचित्य, लिंग वैचित्य, क्रिया वैचित्य, कारक वक्रता, संख्या वक्रता, पुरूष वकता, उपसर्ग वक्रता, निपात वक्रता, उपचार वक्रता आदि के प्रयोग देखे जा सकते हैं। कवि ने मानब के साथ तियंच, जड़ के साथ चेतन, चेतन के साथ जड़, अमूर्त के साथ मूर्त को जोड़ दिया है । इसी प्रकार अलंकार विन्यास में एक चक्रबन्ध में चित्रालंकार को पिरोया है जिसके छह आरों में प्रथम तथा छठे अक्षर को जोड़ने से पूरे सर्ग का वर्ण्य विषय बन जाता है । काव्य में २८ सर्ग और ३१०० श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में अनुप्रास की छटा देखने को मिलती है। अन्यानुप्रास तो मानों कवि के लिये काव्य क्रीडा है । कहीं कहीं तो एक साथ अनेकों मधुर ध्वनियां गूंजने लगती हैं-अनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः, नाथवंशिन इवेन्दु वंशिनः, ये कुतोऽपि परपक्षशंसिनः। अन्यानुप्रास का एक नमूना देखिये मुहुर्नु बद्धाञ्जलिरेष दासः सदा सखि ! प्रार्थयते सदाशः । कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा न वर्तते सत्करकस्वभावा ।। यह दास हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा है किन्तु पूर्णपयोधरा करक स्वभाव के कारण सुनती ही नहीं है । अथवा यह दास अंजुली बांधे पानी पिलाने की प्रार्थना कर रहा है किन्तु करक स्वभाव के कारण पयोधरा पानी नहीं पिला रही ! महाकवि, स्वयं के शब्दों में नाना नव्य निवेदन, सुधाबन्धूज्ज्वल, अतिनव्य, अतिललित, नव्यापद्धति का यह मञ्जतम काव्य है। भूमिका लेखक वागीश शास्त्री के शब्दों में ९८ तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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