Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 96
________________ जलाशयास्तत्र निजावदात वाराऽमलत्वं हरशेखरायाः ।" ६. काव्यलिङ्ग इसमें काव्य और लिङ्ग दो शब्द हैं, जिनका अर्थ है काव्य का कारण अर्थात् ऐसा कारण जिसका वर्णन काव्य में किया जाए। तात्पर्य यह है कि कवि जिस तथ्य को सिद्ध करना चाहता है उसका कारण वाक्यार्थ या पदार्थ में दे देता है। यह तर्क न्यायमूलक अलंकार है । मम्मट के अनुसार जब वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में कारण का कथन किया जाय तो काव्यलिङ्गालंकार होता है : ___ काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता । ६२ रुय्यक ने वाक्यार्थ या पदार्थ रूप से हेतु-कथन को कायलिंग कहा है :'हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गम्'।" यह अर्थान्तरन्यास से भिन्न इसलिए है कि काव्यलिङ्ग में कार्य-कारण भाव का प्राधान्य रहता है, और अर्थान्तरन्यास में सामान्य-विशेष भाव का। अर्थान्तरन्यास में एक वाक्य प्रस्तुत होता है दूसरा अप्रस्तुत, परंतु काव्यलिंग में दोनों ही वाक्य प्रस्तुत होते हैं। रत्नपालचरित का कवि कायलिंग प्रयोग में कुशल है। अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विन्यास हुआ :यत्र क्वचित् याम्यकृतारिभाव तित्रापि मोदं लभते न घूकः । तद् दूषणं तस्य ममाचवेति स बोद्धमस्मिन् विदुषां विचारम् ॥ एक कवि ने कहा-सूर्य ने यह सोचा कि मैं मंत्री भाव से सर्वत्र जाता हूं, पर उल्लू मेरे से प्रसन्न नहीं होता, 'यह उसका दोष है या मेरा' इस विषय में विद्वानों के विचार जानने के लिए आकाश में घूमता है । 'सूर्य आकाश में घूम रहा है' इस कार्य के लिए उल्लु अप्रसन्न है 'इसमें दोष किसका है' यह जानने की इच्छा कारण है । अतएव काव्यलिङ्गालंकार है । अक्षम्यमाडागः परिभाव्य तस्य, समूलमुन्मूलयितुं पदानि ॥" अन्धकार के अक्षम्य अपराध को जानकर उसका (अन्धकार का) समूल विनाश करने के लिए सूर्य घूम रहा है । __'सूर्य घूम रहा है' इस कार्य का कारण अन्धकार का समूल विनाश करना है। यहां कार्य-कारण भाव है। पानार्थमन्पे वितरन्ति वित्त महं तदा जीवनमर्पयामि । तेनैव मह्य महिजानिरत्र विशालंकायं सदनं ददाति ॥ खण्ड २१, अंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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