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हैं) यहां पर चित्त में मदमस्त गज का आरोप किया गया है।
सहाङ कुरां तद् हृदयोर्वरां स,५-राजा वाणी ने (प्रश्नों ने) युवति के हृदय रूप उर्वरा (भूमि) को प्रश्नों की वर्षा कर अंकुरित कर दिया। यहां हृदय में उर्वरा भूमि का तथा प्रश्नों में वर्षा का आरोप किया गया है। तन्मध्यगस्यैकमणे: प्रकाशो
प्रकाशयत् त्वां मम भाग्यचान्द्रम् । रत्नगर्भा (धरती) के एक मणी के प्रकाश ने मेरे भाग्य रूपी चन्द्रकान्तमणि के रूप में तुम्हें प्रकाशित किया है। यहां पर भाग्य में चन्द्रकान्तमणि अर्थात् अमूर्त में मूर्त का आरोप किया गया है। तस्मिन् समं सौधसुधाकरेण
तद्भूपतेजस्तपनोऽभ्युदेति । तारानिभैरन्य गृहैव तेन,
__ मिथो नणां वैरमतो न शङ्क ॥ उस (शक्रपुर) नगर में तारों के समान दूसरे घरों से आवृत राज प्रासाद रूपी चन्द्रमा के साथ-साथ उस राजा का तेजरूपी सूर्य भी उदित होता है। अतः यह निश्चित है कि वहां के लोगों में आपस में वैर-भाव नहीं है। यहां पर राज-प्रसाद में चन्द्रमा तथा राजा में सूर्य का आरोप किया गया है। राजा की विराटता एवं भव्यता का उद्घाटन होता है । रूपक के द्वारा नागरिकों के पारस्परिक निर्वैरता का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।
दैनिक खेदेनाहूतेव
नयनस्नेहप्रियमुन्मील्य । जागरिता द्रविणं हा तां
निद्रादस्युरिवाऽधिचकार । मानों दैनिक खेद से आमंत्रित, नयन रूपी दीपकों को उन्मीलित कर, जागरण रूपी धन का अपहरण करने के लिए निद्रा रूपी दस्यु ने उस राजकुमारी पर अधिकार कर लिया। यहां रूपक के द्वारा राजकुमारी की निद्रा का सुन्दर वर्णन किया गया है। नयन में दीपक, जागरण में धन और निद्रा में दस्यु का आरोप किया गया है । ४. उत्प्रेक्षा
'उत्प्रेक्षा' शब्द उत् एवं प्र उपसर्ग पूर्वक ईक्ष् धातु से बना है-उत्कृष्ट पदार्थ की संभावना या बलपूर्वक देखना । इस अलंकार में उपमान या अप्रस्तुत को प्रकृष्ट रूप से देखने का वर्णन होता है । यह सादृश्य मूलक अलंकार है । दंडी के अनुसार जब अन्य प्रकार से स्थित चेतना अथवा अचेतन पदार्थ की अन्य प्रकार की वस्तु के रूप में संभावना करना उत्प्रेक्षालंकार है । उन्होंने उत्प्रेक्षा वाचक शब्दों में मन्ये, शंके, ध्रुवम्, प्रायः और इव आदि का कथन किया है :
अन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथोत्प्रेक्ष्यते यत्र तामुत्प्रेक्षा विदुर्यथा ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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