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रूप से स्फूर्त की तरह सुन्दर नहीं होते हैं। विवेच्य महाकवि महाप्रज्ञ की वाणी में अलंकार स्वयं 'अहमहमिका' की भावना से टूट पड़े हैं। ध्वनिकार आनन्दवर्द्धन का विचार ध्यातव्य है :
___ अलंकारांतराणि हि निरूप्यमाण दुर्घटान्यपि रससमाहित चेतसः प्रतिभानवतः कवेः अहंपूर्विकया परापतंति ।२
वामन ने सुपात्र शरीर पर ही अलंकारों को शोभावर्द्धक माना है, अर्थात् श्रेष्ठ वाणी को ही अलंकार अलंकृत कर सकते हैं। सरस काव्य में प्रयुक्त अलंकार ही सौदर्याधान में सहायक होते हैं, नीरस काव्य में अनुस्यूत अलंकार केवल उक्ति वैचित्र्य मात्र होकर रह जाते हैं। आचार्य मम्मट के शब्दों में
यत्र तु नास्ति रसः तत्र उक्तिवैचित्यमात्रपर्यवसायिनः।" ___ अलंकार तभी शोभासंवर्द्धक होते हैं जब उनका प्रयोग औचित्यपूर्ण हो। ध्वन्यालोककार ने अलंकार प्रयोग के औचित्य की ओर निर्देश किया है :
ध्वन्यात्मभूतेशृंगारे समीक्ष्य विनिवेशितः । रूपकादिरलंकारवर्ग एतियथार्थताम् ।। विवक्षा तत्परत्वेन नांगित्वेन कदाचन । काले च ग्रहणत्यागौ नाति निर्वहणषिता ।। नियूंढापि चांगत्वे यत्नेन प्रत्यवेलक्षणम् ।
रूपकादिरलंकारवर्गस्यांगत्व साधनम् । उपर्युक्त विवेचन से अलंकारोचित्य के निम्नलिखित विन्दुओं पर प्रकाश पड़ता
१. अलंकार प्रयोग 'रसपरत्वेन' अर्थात् रस को ही प्रधान मानकर होना
चाहिए। २. अलंकारों की प्रधानता नहीं होनी चाहिए। ३. आवश्यकतानुसार इनका ग्रहण और त्याग भी अपेक्षित है। ४. प्रयत्न पूर्वक काव्य में इनका आद्यन्त निर्वाह न हो, निर्वाह हो भी जाए तो
अंगीत्व का स्थान न ग्रहण करें। महत्त्व
काव्य में अलंकार-प्रयोग से काव्य की चारुता संवद्धित होती है, जैसे निसर्गरमणीय युवती का शरीर आभूषणों का योग पाकर दमक उठता है । अलंकार के विना काव्य वैसे ही सुशोभित नहीं होता जैसे स्वाभाविक-सुन्दर होने पर भी वनिता का मुख विभूषण के बिना विभूषित नहीं होता है । भामह के अनुसार :
न कान्तमपि निर्भूषं विभातिवनितामुखभ् । ६ इंदुराज ने अपने ग्रंथ में अलंकार को काव्य का जीवात्मा स्वीकार किया है। जयदेव ने अलंकार रहित काव्य को उष्णतारहित-अग्नि से उपमित किया है।
अलंकार न केवल शोभासंवर्द्धक या रसोत्कर्षक तत्त्व हैं, बल्कि चित्रात्मकता और बिम्बात्मकता में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये कवि की मानसिक स्थिति को द्योतित
खण्ड २१, अंक १
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