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निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर संक्षेप में निम्नलिखित तथ्य सामने आते
(i) बन्ध और कैवल्य की समस्या मूलत: सांख्यकारिका ६२-'तस्मान्न बध्यते'-आदि के कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि यहीं पर स्पष्टतः यह कहा गया है कि बन्ध, संसरण और कैवल्य पुरुष का नहीं होता, अपितु—'नानाश्रया प्रकृति' का होता
(ii) सांख्यकारिका के टीकाकारों ने इस समस्या का समाधान दो भिन्न रूपों में किया है-आचार्य माठर, गौड़पाद तथा विज्ञानभिक्ष बन्ध, संस्सरण और कैवल्य को प्रकृतिगत ही मानते हैं तथा तत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र इन्हें पुरुष में आरोपित हुआ स्वीकार करते हैं ।
(iii) आधुनिक समालोचकों में पं० उदयवीर शास्त्री अपने मत में बहुत स्पष्ट हैं कि बन्ध और कैवल्य प्रकृति के माध्यम से पुरुष का ही होता है, प्रकृति का नहीं। डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र के अनुसार भी व्यावहारिक दृष्टि से बंध व मोक्ष को पुरुष का ही मानना चाहिए। डॉ० दासगुप्त का मत है कि पुरुष ही अविवेकवश त्रिगुण के बन्धन में आता है तथा विवेक ख्याति द्वारा वह पुनः अपने मूल रूप में प्रकाशित होता है । डा० अणिमासेन गुप्त का विचार भी लगभग यही है, लेकिन डॉ० कीथ व पंडित बलदेव उपाध्याय बन्धन एवं कैवल्य को प्रकृतिगत ही मानते हैं पुरुषगत नहीं। इस प्रकार बन्ध और कैवल्य के विषय में विद्वानों में दो भिन्न विचार उपलब्ध होते हैं लेकिन अधिकांश टीकाकार और समालोचक इस मत के ही पक्षधर प्रतीत होते हैं कि बन्ध और कैवल्य पुरुष का ही होता है और यही मत अधिक समीचीन भी है।
-रीडर, संस्कृत विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,
कुरुक्षेत्र-१३२१२९ सन्दर्भ
१. द्र० श्रीमद्भगवद्गीता १०/२६ २. द्र० हलायुधकोशः पृ० ४४५, आप्टे सं० हि० को० पृ० ८१९, मोनियर विलियम्स, ___ सं० ई० डि० पृ० ८३४-३५ ३. सांख्यसूत्र १/१५ ४. न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षसाधनोपदेशविधि । सांख्यसूत्र १/७ ५. कूर्म पुराण २/२/१२-१३ ६. बन्धोऽत्र दुःखयोग एव । सांख्यप्रवचन भाष्य १/७ ७. सांख्यकारिका-२० ८. (क) त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तः पुरुषार्थः सांख्यसूत्र १/१
खण्ड २१, अंक १
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