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सांख्यसूत्रकार तथा प्रवचनभाष्यकार विज्ञानभिक्षु भी इसी द्वितीय मत के समर्थक प्रतीत होते हैं। उनका कथन है-बन्ध और मोक्ष प्रकृति के ही हैं जैसे कोई पशु रज्जु से बद्ध होता है । उसी प्रकार दु:ख के साधनभूत धर्माधर्मादि से लिप्त होने के कारण प्रकृति बद्ध होती है । ६ तत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र भी बन्ध, मोक्ष और संसरण को प्रकृतिगत मानते हुए गौण रूप से पुरुष में उन्हें केवल आरोपित ही मानते हैं। जैसे जयपराजय भृत्यों की होने पर भी उसका आरोप स्वामी में किया जाता है उसी प्रकार प्रकृति से अपना भेद न समझने के कारण उसमें स्थित-भोग और मोक्ष से पुरुष का भी सम्बन्ध जोड़ दिया जाता है, ऐसा वाचस्पति मिश्र का मत है।
इस विषय में आचार्य माठर और गौड़पाद का विचार है कि पुरुष स्वभावतः सर्वगत, अविकारी, निष्क्रिय और अकर्ता होता है अतः उसका बन्धन नहीं हो सकता। जब बन्ध नहीं तो कैवल्य कैसा ? फिर कौन किसको बांधता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि प्रकृति ही स्वयं को बांधती है, संसरण करती है और मुक्त करती है । वस्तुतः सर्ग के आदि में जो पञ्चतन्मात्राओं से निर्मित त्रयोदश विध करणों से युक्त सूक्ष्म शरीर होता है वही प्रकृतादि तीन प्रकार के बन्धों से बन्धता है और वही विवेक शान के उत्पन्न होने पर बन्धन से मुक्त भी होता है, इस प्रकार सूक्ष्म शरीर के माध्यम से प्रकृति ही बन्धती, संसरण करती और मुक्त होती है। ऐसा माठर का मत है।" आधुनिक विद्वान्
पं० उदयवीर शास्त्री का कथन है कि मध्यकाल के विरोधी दार्शनिकों ने आत्मा (आत्मा) की स्थिति को अपने पैने दीखने वाले तों से झकझोर डाला।" विरोधियों का तर्क यह है कि आत्मा यदि साक्षात् रूप से सुख-दुःख का भोक्ता है तो उसे सुखात्मक और दुःखात्मक होने से परिवर्तनशील मानना पड़ेगा, इस प्रकार वह परिणामी हो जाएगा, जो शास्त्र का अभीष्ट नहीं है ।" सम्भवतः विरोधियों की इस शंका का समाधान करने के लिए ही कारिका ६२ में कहा गया है कि बन्ध-मोक्षादि पुरुष के नहीं होते, वे तो प्रकृति के होते हैं । इस विषय में प० उदयवीर शास्त्री का विचार है कि "विरोधियों के ये तर्क केवल शब्द-जाल हैं। आत्मा चिन्मात्र है उसका स्वरूप चैतन्य है, अनुभूति है । चाहे वह सुख का अनुभव करता है, चाहे दुःख का, किसी भी अवस्था में वह अपने अनुभूति स्वरूप का परित्याग नहीं करता।"२२ कारिका ६२ के कारण उत्पन्न भ्रम का निवारण करते हुए वे कहते हैं कि "आत्मा स्वतः न बद्ध होता है, न मुक्त और न संसरण किया करता है, प्रत्युत प्रकृति के संपर्क में आने से वह बद्ध कहा जाता है तथा संपर्क न रहने पर मुक्त "सूक्ष्म शरीर के द्वारा आवेष्टित हुआ वह विविध योनियों में संचरण करता है क्योंकि आत्मा के समस्त भोग व अपवर्गलाभ प्रकृति एवं उसके साधनों के बिना सम्पन्न नहीं हो सकते, इसी विचार से उपर्युक्त तस्मान्न बध्यते (का० ६२) का वर्णन किया गया है । इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि भोग व अपवर्ग आत्मा को छोड़कर केवल प्रकृति में अथवा वस्तुस्थिति से प्रकृति में हुआ करते हैं।" सांख्यबण २१, अंक १
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