Book Title: Tulsi Prajna 1995 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 53
________________ कारिका की अन्य कई कारिकाओं से तथा सांख्य सूत्रों से२५ भी यही समझ में आता है कि बन्ध व मोक्ष प्रकृति के माध्यम से पुरुष का ही होता है, प्रकृति का नहीं। डॉ० आद्याप्रसाद मिश्र का मत -सृष्टि प्रयोजन के विषय में चर्चा करते हुए वे कहते हैं ---"परमार्थतः तो पुरुष का कोई प्रयोजन नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वभावतः निर्बन्ध व नित्य-मुक्त है, यह कथन तो ठीक है, परन्तु सांख्यकारिका पुरुष की पारमार्थिक अवस्था के लिए प्रयोजन का कथन कहां करती है । सष्टि का प्रयोजनकथन करने का तात्पर्य ही यह है कि पुरुष की जीवनगत अर्थात् बद्धावस्था के लिए ही प्रयोजन की बात कही गई है।"२६ अन्यत्र डॉ. मिश्र ने स्पष्ट किया है.---"पुरुष में परमार्थतः दुःख अवश्य नहीं है किन्तु प्रकृति के कार्य 'बुद्धि' के सान्निध्य से उसमें स्थित दुःख का अज्ञान या भ्रम के कारण अपने में आरोप या अध्यास कर लेने से पुरुस में दुःख की प्रतीति होती है, इस प्रकार पुरुष में दुःख के अस्तित्व तथा उससे उसके मोक्ष की बात असंगत नहीं है ।"२७ इसके अतिरिक्त डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र का यह भी विचार है कि शास्त्रीय दृष्टि से दुःख भले ही प्रकृति का धर्म हो लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से वह उसी का होगा जिसे उसकी अनुभूति होगी। अनुभूति किसी चेतन का ही धर्म हो सकता है और इसीलिए उससे छुटकारा या मोक्ष भी चेतन का ही धर्म होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि डा० मिश्र के अनुसार बन्ध व मोक्ष व्यावहारिक दृष्टि से पुरुष का ही मानना चाहिए । डॉ० एस. एन. दासगुप्त ने यद्यपि बन्ध व कैवल्य के विषय में अपना कोई स्पष्ट मत नहीं दिया है, तथापि एक स्थान पर वे कहते हैं- "गुणों के बन्धन की सीमा से पार पहुंच जाने पर, पुरुष अपने पूर्ण चैतन्य के साथ प्रकाशित होता है ।२९ उनके इस कथन से यह समझ में आता है कि उनके मत में भी पुरुष ही त्रिगुण के बन्धन में बंधता है और बाद में वही विवेक ख्याति के द्वारा मुक्त होता है । इसके विपरीत पाश्चात्य विद्वान प्रो. ए. बी. कीथ इस मत के पक्षधर हैं कि बन्ध व मोक्ष प्रकृति के ही होते हैं । उनका विचार है कि अपरिणामी होने से पुरुष के बन्ध व मोक्ष मानना उचित नहीं ।' पण्डित बलदेव उपाध्याय का भी ऐसा मत है कि प्रकृति ही बन्ध, मोक्ष और संसार का अनुभव करती है पुरुष का अपवर्ग तो "प्रतिबिम्बरूप मिथ्या दुःख का वियोग मात्र है ।''३१ इस विषय में डॉ० अणिमासेन गुप्त ने कहा है ..."आत्मा सदैव मुक्त है लेकिन भ्रांति के कारण बन्ध और मोक्ष का पुरुष पर आरोप कर दिया जाता है......." जब विवेक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, प्रकृति सृष्टि क्रम को बन्द कर देती है, प्रतीयमान एकता नष्ट हो जाती है और आत्मा (पुरुष) मोक्ष को पा लेती है और यही प्रकृति द्वारा सृष्टि-क्रम का मुख्य प्रयोजन है।"१२ वस्तुत: डॉ० अणिमासेन का विचार यह है कि प्रकृति और पुरुष कैवल्य की स्थिति में अस्तित्व में तो बने रहते हैं लेकिन अविवेक के कारण पुरुष जो प्रकृति के धर्मों और कार्यों को अपना सा समझ बैठा था, वह अभेदभाव, अब दूर हो जाता है और वह पुनः अपनी विशुद्ध स्थिति का अनुभव करने लगता है। ४८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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