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है । वह हर क्षण हर पल धर्म में उत्साह रखता है । भिक्षु को हर समय अपने चित्त को धर्म में स्थिर रखने के लिए अप्रमत्त होना चाहिए । इसीलिए तो महावीर ने गौतम को वार-बार कहा - समयं गोयम मा पमायए ।
धम्मपद में भी भिक्षु को अप्रमत्त रहने के लिए कहा हैअप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सिवा |
अभव्वो परिहानाय निब्बानस्सेव सन्तिके ॥
अप्पमादरता होथ सचित्तमनुरक्खथ । दुग्गा उद्धरथत्तानं पङ्क सन्नो व कुञ्जरी । '
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भिक्षु को अप्रमाद में रत होकर अपने चित्त की रक्षा करनी चाहिए। दलदल में फंसा हाथी जिस तरह अपने को स्वयं ही छुड़ाता है उसी तरह संकट में से अपने को स्वयं ही उबार लेना चाहिए जिससे चित्त अपने आप ही सुसमाहित हो जायेगा ।
८. समभावी
चरणं हवइ धम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो ।
सो गरोसरहिओ जीवस्स अणणपरिणामो ॥५
चरित्र ही स्वधर्म है । आत्म समभाव सर्व जीवों के प्रति आत्मवत् भाव ही धर्म है । राग-द्वेष रहित जीव का अनन्य परिणाम समभाव है । भिक्षु वही कहलाता है जो अनन्य परिणाम भाव में रमण करता है । अनन्य परिणाम भावों वाला भिक्षु सब कुछ सहन कर समत्व में रमण करता है। दसवैकालिक में समता से जीने वाले को भिक्षु की संज्ञा दी है ।
जो सहइ हु गामकंगए, अक्चजेरा पहारवज्जणाओ य । भयभेरवसद्दसंहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु ॥"
अर्थात् जो व्यक्ति कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है, सुख और दुःख को समभाव से सहन करता है-वह भिक्षु है ।
इसी प्रकार धम्मपद में भी भिक्षु को समत्व में रहने का निर्देश दिया है
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सुसुखं वत जीवाम वेरिनेसु अवेरिनो । वेरनेसु मनुस्से विहराम अवेरिनो ॥
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८. सहिष्णु
इस संसार में जन्म-मरण की परम्परा निरन्तर चल रही है । इस जन्म मरण की परम्परा में मनुष्य को सुख-दुःख, इन्द्रियों के स्पर्श, सर्दी गर्मी इत्यादि परीसह आते है । उन परीसहों को समभावपूर्ण सहन करनेवाला भिक्षु कहलाता है । दसवैका - लिक में कहा है- ' पुढवि समे मुणी हवेज्जा"" – मुनि को पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिए । धम्मपद में भी सहन करने वाले व्यक्ति को ही श्रेष्ठ बतलाया गया है -
दन्तो सेट्ठो मनुस्सेसु योऽतिवाक्यं तितिक्खति ॥ "
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तुलसी प्रशा
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