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अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता ।
ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गन्त्वा न सोचरे ॥' अर्थात् जो मुनि अहिंसक हैं, शरीर से जो सदा संयत रहते हैं, वे अव्युत पद को प्राप्त होते हैं, जहां शोक नहीं रहता।
न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति ।
अहिंसा सब्बपाणानं आरियो ति पच्चति ॥' प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं होता । आर्य तो प्राणीमात्र के प्रति अहिंसक भाव बर्तने वाला ही कहा जाता है । दसवैकालिक में भिक्षु की निम्न परिभाषा दी है--
पुढवीं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए ।
अगणिसत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ।।'
जो पृथ्वी का खनन न करता है और न कराता है जो शीतोदक न पीता है और न पिलाता है, शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न जलाता है और न जलवाता हैवह भिक्षु है इस प्रकार भिक्षु अथवा मुनि को किसी भी प्राणी के प्रति अहित-चिन्तन नहीं करना चाहिए। २. मैत्री विहारी
मैत्री मनुष्य-मनुष्य के बीच में पारस्परिक सहयोग व संगठन को मजबूत करती है । और व्यक्ति को परम शान्ति प्राप्त कराती है । धम्मपद में कहा है--
मेत्ताविहारी यो भिक्खु पसन्नो बुद्धसासने । . अधिगच्छे पदं सन्तं संखारूपसमं सुखं ॥ ___ अर्थात् जो भिक्षु मैत्री भावना से विहार करता हुआ बुद्ध के उपदेश में प्रसन्न रहता है. वह सभी संस्कारों का शमन करने बाले और सुख रूप (निर्वाण) शान्ति-पद को प्राप्त होता है । मैत्री में रमण करने वाला भिक्षु सबको 'अत्तसमे मन्नेज्ज व छप्पिकाए" अर्थात् षड्काय के जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है । धम्मपद में भी यह उल्लेख मिलता है
रावे तसन्ति दण्डस्स सव्वे भायन्ति मच्चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥' अर्थात् दण्ड से सभी डरते हैं । मृत्यु से सभी भय खाते हैं। अतः अपने समान ही सबका सुख-दुःख जानकर न तो स्वयं ही किसी को मारें और न अन्य किसी को मारने के लिए प्रेरित करें। इस प्रकार भिक्षु मैत्री भावना से विचरण करता रहे। ३. अपरिग्रही
भिक्षु अपरिग्रही होते हैं । वे अपने पास कुछ भी नहीं रखते । संग्रह नहीं करते । दसर्वकालिक और धम्मपद में भिक्षु को अपरिग्रही रहने के लिए कहा है।
तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता ।
होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ अर्थात् मुनि अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्तकर-यह कल या परसों
तुलसी प्रज्ञा
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