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'भगवती' में सृष्टि तत्त्व - पंचास्तिकाय
भगवती सूत्र में विश्व के लिए "लोक" शब्द का प्रयोग किया गया है । लोक शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है "जो लोक्कए से लोए "" अर्थात् जो देखा जाता है, वह लोक है । यह लोक की अत्यन्त स्थूल परिभाषा है । इस परिभाषा से केवल इन्द्रिगम्य दृश्यजगत् का ही ग्रहण होता है । लोक की वास्तविक या तात्त्विक परिभाषा करते हुए भगवान् महावीर ने कहा - "लोक पंचास्तिकाय रूप है। पांच अस्तिकाय हैंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय | अधिक स्पष्टता के लिए मननीय है कि अखंड आकाश का वह भाग जिसमें पंचास्तिकाय विद्यमान हैं, लोक कहा जाता है।
भगवती सूत्र में समुपलब्ध इस परिभाषा के आधार पर विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि निस्सीम आकाश दो भागों में विभक्त है-लोकाकाश व अलोकाकाश । जिस आकाशीय भाग में पंच निरपेक्ष मौलिक तत्त्वों की सहावस्थिति है - वह लोकाकाश की संज्ञा से अभिहित है । शेष द्रव्य शून्य एकमात्र असीम आकाश तत्त्व की ही सत्ता जहां प्रसारित है वह अलोक (रिक्त आकाश Anti Universe) कहलाता है । *
[ समणी चैतन्यप्रज्ञा
आगम-युग के अनन्तर दर्शन युग में अस्तिकाय की विचारधारा ने द्रव्य का स्थान लिया । परिणामतः भिन्न-भिन्न दार्शनिक प्रस्थानों ने विश्व के मूल में भिन्नभिन्न द्रव्यों की कल्पना की । न्याय-वैशेषिक मत में क्रमश: १६ व ७ पदार्थों' सांख्य व योग में पुरुष और ईश्वर सहित २५ व २६ तत्वों, ' मीमांसा व वेदान्त में, चार्वाक मत में पंचभूत', बौद्ध मत में पंचस्कन्ध, की कल्पना स्थिर हुई। जैन दर्शन में षड्द्रव्य की कल्पना ने मान्यता प्राप्त की । इस संदर्भ में लोक की परिभाषा में आगमिक विचार धारा का विकसित रूप सामने आया । आचार्यों ने " षड्द्रव्यात्मको लोकः ' अर्थात् छः द्रव्यों की सहसमन्विति का नाम लोक या विश्व रखा । षड्द्रव्य की कल्पना में काल - द्रव्य की स्वीकृति वैश्विक मूलतत्त्व के रूप में हुई । काल द्रव्य की सत्ता आगम-युग से स्वीकृत व मान्य" होते हुए भी आगमकालीन विश्व - परिभाषा के साथ इसे न जोड़ने का एक मात्र कारण इसका "अस्तिकाय" न होना ही प्रतीत होता है । इस तरह पंचास्तिकाय का विकसित रूप ही षड् द्रव्य है ।
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छः द्रव्यों के अभिधावन इस प्रकार है
१. धर्मास्तिकाय : गतिसहायक द्रव्य ( Medium of Motion )
खण्ड २१, अंक १
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