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स्थूल-जगत् पर लागू होते है सूक्ष्म-जगत् में इनकी पैठ नहीं है। यही कारण संभाव्य है कि “धर्मास्तिकायादि पंचतत्त्व सावयव (सप्रदेशी) होते हुए भी शाश्वत (नित्य) हैं। सर्वदा अपने अस्तित्व को बनाये रखते हैं।" ___इस प्रकार वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुशीलन व विविध दार्शनिक प्रस्थानों के अध्ययन से इन षड्-द्रव्यों से अतिरिक्त किसी तत्त्व की सत्ता प्रतीति का विषय नहीं बनती है । विश्व के प्रपंच को सांख्य की प्रकृति-लय की प्रक्रिया के सदृश्य मूल तत्त्वों में अर्थात् कारण तत्त्वों में लीन किया जाय तो निरपेक्ष, शाश्वत व स्वयंम्भू सत्ता के रूप में इन छः द्रव्यों का अस्तित्व ही अनुभूति का विषय रह जाता है।
दृश्यमान् विश्व माया के विस्तार में छः में से दो तत्त्वों का विशिष्ट योगदान है; वे हैं -पुद्गलास्तिकाय व जीवास्तिकाय । दूसरे शब्दों में जड़ व चेतन इनके विविध रूपों में संयोग और वियोग से दृश्य-जगत् की सर्जना होती है ।२ शेष द्रव्य इनकी गति, स्थिति, आश्रय व परिवर्तन आदि" में हेतुभूत् बनते हैं । सांख्यमत भी जैनमत की तरह दो तत्त्वों के संयोग से सृष्टि-विकास की प्रक्रिया को स्वीकार करता है; वे हैं -प्रकृति व पुरुष ।
संदर्भ-सूची १. (क) भगवती सूत्र; ५/९/२२५ (ख) यो लोक्यते विलोक्यते प्रमाणेन सः लोको-लोक शब्द वाच्यो भवतीति ।
(भगवती वृत्ति)-विश्व प्रहेलिका; पृ० ७२ २. किसियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चह ! गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पवुच्चइ, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अहम्मत्थिकाए जाव पोगगल त्थिकाए ।
भ० सूत्र०, १३/४/४८ । ३. (क) गोयमा ! दुविहं आगासे वण्णत्ते तं जहा लोयागासे य अलोगागासे य ।
भ० सूत्र ! २/१०/१२० (ख) लोकोऽलोकश्च । -श्री जैन सिद्धांत दीपिका; २/७ ४. (क) भवेदभ्रास्ति कायस्तु लोकालोकभिदा द्विधा । लोकाकाशस्तिकायः स्यात्तत्रासंख्यप्रदेशकः ।।
-लोकप्रकाश २/२५ (ख) शेष द्रव्यशून्यमाकाशमलोकः (Illminator of Jaina Tenets,)2/13 ५. षड्दर्शन समुच्चय; १४, ६० ६. सांख्यकारिका, का० २२ ७. षड्दर्शन समुच्चय; ७८ ८. षड्दर्शन समुच्चय; ८३ ९. षड्दर्शन समुच्चय; श्लोक ५ १०. (क) श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १/८-षड्द्रव्यात्मको लोकः । (ख) धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जन्तवो
एक लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र; २८/७ पण २१, अंक १
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