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२. अधर्मास्तिकाय : स्थिति सहायक द्रव्य ( Medium of Rest )
३. आकाशास्तिकाय आश्रय देने वाला द्रव्य (Space)
४. काल : समय ( Time )
५. जीवास्तिकाय : ज्ञातृस्वभाव वाला द्रव्य ( Soul of Conciousness) ६. पुद्गलास्तिकाय: ग्रहणधर्म वाला द्रव्य ( Matter)
अस्तिकाय की स्वीकृति जैन दर्शन की नूतन व मौलिक खोज है । भगवान् महाबीर से पूर्व ऐसी किसी विचारधारा का दर्शन नहीं होता है । सर्वप्रथम पंचास्तिकाय के अस्तित्व की स्वीकृति भगवान् महावीर के दर्शन में ही देखी जाती है । इसके साक्ष्य हैं भगवती का ७ वां व १८ वां अध्याय ( शतक ) ।
भगवान् महावीर ने जब पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया व स्वरूप बतलाया तब तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओं से संबंधित चिन्तकों में इस नवीन प्रस्थान के विषय में शंका, इनके अस्तित्व के प्रति संदेह और तद्विषयक ऊहापोह हुआ । भगवती सूत्र में यत्र तत्र इसके साक्ष्य देखे जाते हैं । भगवान् महावीर, उनके शिष्य इन्द्रभूति गौतम और भक्त श्रमणोपासक मद्रक के साथ अन्य मतावलम्बियों की सुदीर्ध चर्चाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि पंचास्तिकाय के प्रथम प्रवर्तक भगवान् महावीर हैं ।
प्राचीन समय से लेकर आज तक जबकि विज्ञान की प्रगति काफी हो चुकी है । पुद्गल को छोड़कर शेष द्रव्यों के अस्तित्व के विषय में संदेह बना हुआ है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान ने धर्मास्तिकाय को ईथर के रूप में स्वीकार किया है तथापि उसका स्वरूप उतना स्थिर व असंदिग्ध नहीं रह पाया जैसा धर्मास्तिकाय का है । आत्मतत्त्व की ओर विज्ञान का झुकाव हुआ है । फिर भी अतीन्द्रिय ज्ञान - गोचर विषयों को इन्द्रिय और उपकरण के माध्यम से जान पाना असंभव ही प्रतीत होता है । यही कारण है कि इन अदृश्य, अभौतिक, अनिन्द्रीय तत्त्वों की स्पष्ट स्वीकृति व निश्चित व्याख्या अन्वेषणों का विषय नहीं बन पाई है । अध्यात्मविदो ने आत्मप्रत्यक्ष के आधार पर अवश्य स्पष्ट स्वीकृति व सुनिश्चित व्याख्या प्रस्तुत की है । इन तत्त्वों के अस्तित्व संबंधी प्रश्न भगवान् महावीर के सामने भी उपस्थित हुए। एक बार भगवान् महावीर का राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य में शुभागमन हुआ । उसके कुछ ही दूर पर अन्य मतावलम्बी कालोदायी शैलोदायी, शैवालादायी, उदय, नर्मोदय, अन्य पालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति रहते थे । एकदा वे चर्चा करते हैं कि "निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र ( महाबीर ) पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं । पुद्गल को छोड़कर शेष को अमूर्त व अभौतिक तथा जीवास्तिकाय के अलावा चार द्रव्यों को अजीव (चेतनाशून्य) बतलाते हैं । अमूर्त अजीव द्रव्यों का अस्तिकाय कैसे स्वीकार किया जाय ?१८
चर्चा के दौरान इन्द्रभूति गौतम का वहां से गुजरना हुआ । अन्य तीर्थिकों ने अपनी शंका उनके सामने प्रस्तुत की । गौतम ने कहा – “हम श्रमण अस्तिभाव
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तुलसी प्रज्ञा
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