Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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परित्याग किया। राजा कुछ कर नहीं सके। (श्लोक २५१-२५७)
राजा श्रीविजय ने जब उसे मृत देखा तो मूच्छित होकर वे भी मृत की भाँति जमीन पर गिर पड़े। किन्तु; चन्दन पंक से सिंचित होने के कारण जब उनकी मूर्छा टूटी तब वह श्रेष्ठ नपति इस प्रकार विलाप करने लगे – 'हे निरुपमा, तुम्हें अपहरण कर भाग्य ने मुझे छला है। तुम्हारी सुन्दर देह और रूप पर ही तो मैं जीवित था। तुम्हारी अनुपस्थिति में स्तम्भहीन गह जिस प्रकार गिर जाता है उसी भाँति इस दुःख-भार से मैं भी विनष्ट हो जाऊँगा। कैसा मूर्ख था मैं जो तुम्हारे कथन पर स्वर्णमृग द्वारा ठगा गया ? वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बना। मेरे रहते तक्षक भी तुम्हें दंशन नहीं कर सकता था, कुर्कुट सर्प की तो बात ही क्या ? भाग्य ही बलवान है, किन्तु; मैं तुम्हारी चिता पर आरोहण कर अपने दुर्भाग्यपूर्ण भविष्य को खण्डित करूंगा।
(श्लोक २५८-२६४) ऐसा कहकर राजा ने तत्क्षण चिता तैयार करवाई और मानो वह केलिगह की सुकोमल शय्या हो इस प्रकार चिता पर पत्नी सहित आरोहण किया। जैसे ही चिता प्रज्वलित हई वैसे ही वहाँ दो विद्याधर आकर उपस्थित हुए। उनमें से एक के मन्त्र पाठ कर चिता पर जल छिड़कते ही अट्टहास करती हुई प्रतारिणी विद्या भाग छूटी। 'अरे जलती हुई चिता कहाँ गई ? मेरी मृत पत्नी की देह कहाँ गई ? किसने इस भाँति अट्टहास किया? भाग्य का यह कैसा खेल है ?' इस प्रकार चिन्तन करते हुए अग्नि से जिनकी जरा भी क्षति नहीं हुई वे राजा उन दोनों सौम्यदर्शन व्यक्तियों से पूछने लगे-'यह सब क्या है ?'
(श्लोक २६५-२६९) उन्होंने राजा को प्रणाम कर ससम्मान उत्तर दिया-'हम विद्याधरराज अमिततेज के सैनिक हैं। परस्पर पिता-पुत्र हैं। हमारे नाम सम्भिन्नस्रोत और दीपशिख म जिन-प्रतिमा की पूजा और तीर्थस्थलों के परिदर्शन के लिए निकले हैं। जब हम इधर से जा रहे थे तब कानों के लिए दुःसह ऐसे करुण कण्ठ का विलाप सूना जो पशु-पक्षियों को भी द्रवित कर दे रहा था-'हे श्रीविजय, हे स्वामिन्, शत-शत राजन्यवर्ग जिनकी सेवा करते हैं, हे भ्राता अमिततेज, जो कि प्रताप में सूर्य की भाँति हैं, हे बान्धव