Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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है । आप यदि ऐसा नहीं कर सकते हैं तो मात्र चार मास वर्षा तक उन्हें यहीं रहने दें ।'
नमूची विष्णुकुमार का यह कथन बोला- 'ज्यादा बातें करने से कोई लाभ को यहां रहने नहीं दूँगा ।'
सामर्थ्य होने पर भी विष्णुकुमार शान्त स्वर में बोले - 'ठीक है तब उन्हें नगर के बाहर उद्यान में ही रहने दें, वे नगर में प्रवेश नहीं करेंगे ।' स्वयं को मन्त्री रूप में अभिहित करने वाला नमूची महामुनि को क्रुद्ध कण्ठ से बोला- 'मैं तुमलोगों की गन्ध भी सहन नहीं कर सकता, रहने देना तो दूर की बात है । दस्यु जैसे सदाचारहीन श्वेत वस्त्रधारी गण न नगर में रह सकते हैं न नगर के बाहर ।' यदि स्वयं का जीवन तुमलोगों को प्रिय हैं तो शीघ्र इस स्थान का परित्याग करो । यदि ऐसा नहीं किया तो गरुड़ जैसे सर्प की हत्या करता है मैं भी उसी प्रकार तुम्हारी हत्या करूँगा ।' ( श्लोक १७२ - १७५)
( श्लोक १६७ - १७० )
कर्कश स्वर में
सुनकर नहीं है
।
मैं तुम लोगों
( श्लोक १७२ )
आहुति देने से अग्नि जैसे प्रज्वलित हो जाती है -विष्णुकुमार भी नमूची के कथन पर उसी प्रकार प्रज्वलित हो उठे । बोले, 'तब आप मुझे यहाँ पर त्रिपाद (तीन पैर भर ) भूमि दीजिए । प्रत्युत्तर में नमूची ने कहा- 'मैंने तुम्हें त्रिपाद भूमि दी ; किन्तु जो इस त्रिपाद भूमि के बाहर आएगा उसकी मैं हत्या करूंगा ।' 'तब दीजिए' कहकर विष्णुकुमार बढ़ने लगे । मस्तक पर मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में माला, हाथ में धनुष, वज्र और खड्ग धारण कर ली । मारे भय के खेचर चिल्लाते हुए जीर्ण पत्रों की तरह जमीन पर गिरने लगे । पदाघात से कमलपत्र जैसे कम्पित होता है उसी प्रकार पृथ्वी काँपने लगी । प्रलयकालीन पवन से जैसे समुद्र उत्क्षिप्त हो जाता है उसी प्रकार समुद्र उत्क्षिप्त हो गया । बाधा पाकर नदियाँ विपरीत दिशा में प्रवाहित होने लगी । सामान्य ढेले की तरह नक्षत्र पु ंज इधर-उधर बिखरने लगे । बड़े-बड़े पर्वत वल्मीक की भाँति टूट-टूट कर गिरने लगे । प्रदीप्त विष्णुकुमार विशाल होते-होते विभिन्न आकार धारण कर सुरासुर सबको भयभीत करते हुए मेरु पर्वत की उच्चता को प्राप्त हो गए ।
( श्लोक १७६-१८२)