Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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नमस्कार । आप जनसाधारण के लिए अचिन्त्य मणिरत्न स्वरूप हैं । वाणी से आपकी प्रशंसा और मन से आपका ध्यान जितना ही किया जाए उतना ही कम है । हे भगवन्, हम आपकी पूजा और स्तुति निरन्तर कर सकें इसके अतिरिक्त हमारी कोई इच्छा नहीं है।' ( श्लोक ९१-९८ ) हो जाने पर भगवान्
इस भांति स्तुति कर उनके निवृत्त कुन्थुनाथ ने निम्नलिखित देशना दी :
'चौरासी लाख योनि रूप भँवरों से पूर्ण यह संसार रूपी भव समुद्र महा भयंकर और दुःखों का कारण है । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने पर सुदृढ़ मन शुद्धि रूपी जहाज विवेकियों को इस भव सागर से उत्तीर्ण कराने में समर्थ है । ज्ञानियों के लिए मनः शुद्धि मोक्षमार्ग प्रदर्शनकारी एक ऐसी दीपशिखा है जो कभी निर्वापित नहीं होती । वहाँ अप्राप्त गुण स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। जहां मनः शुद्धि नहीं वहां प्राप्त गुण भी लुप्त हो जाते हैं । अतः प्रज्ञाशील व्यक्तियों के लिए निरन्तर मन को शुद्ध रखना उचित है । जो बिना मनः शुद्धि के मुक्ति के लिए तपस्या करते हैं वे जाज परित्याग कर तैर कर समुद्र पार करने की चेष्टा करते हैं । अन्धे के लिए जैसे दर्पण व्यर्थ है उसी प्रकार मनः शुद्धि के बिना तपस्वी का ध्यान भी व्यर्थ है । चक्राकार वायु जैसे राह चलते लोगों को अन्यत्र उठाकर फेंक देता है उसी प्रकार मोक्ष पथ के यात्रियों को चञ्चल और अविशुद्ध मन अन्यत्र ले जाता है ।' (श्लोक ९९-१०६)
'निरंकुश और निःशंक विचरणकारी मन रूपी निशाचर त्रिलोक के प्राणियों को संसार रूपी गह्वर में लाकर पटक देता है | मनको अवरोध किए बिना जो योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं वे उसी प्रकार हास्यास्पद और व्यर्थ होते हैं जैसे लँगड़े व्यक्ति का पैरों से चलकर गांव में जाने की इच्छा व्यक्त करना । जो मन को जीत लेता है, उसके समस्त कर्म निरुद्ध हो जाते हैं और जिनका मन पर शासन नहीं, उसके कर्म दिन-प्रतिदिन बढ़ते रहते हैं । मन रूपी मर्कट सर्वत्र विचरण करना चाहता है । अतः जो मुमुक्षु हैं उनके लिए उचित है कि दृढ़ संकल्प द्वारा उसे नियन्त्रित करें, सर्व प्रकार से शुद्ध करें । मनः शुद्धि बिना तप, संयम और स्वाध्याय का प्रयोजन ही क्या है ? कारण, बिना मनः शुद्धि के वे केवल देह पर्यवसित हैं । मन की विशुद्धि के द्वारा ही एक मात्र राग और द्वेष पर विजय