Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 222
________________ [२१३ कालान्तर में महापद्म के यहां चक्ररत्नादि उत्पन्न हुए। महाबलवान उन्होंने छह खण्ड भरत क्षेत्र को जीत लिया । शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के चन्द्र की तरह प्रायः पूर्ण होने पर भी जैसे उसमें एक कला का अभाव रहता है उसी प्रकार चक्रवर्ती का समस्त वैभव प्राप्त कर भी उन्हें स्त्रीरत्न का अभाव था । स्त्रीरत्न मदनावली को जिसे पूर्व ही उन्होंने देखा था स्मरण कर आश्रम पद में तुरन्त गए। आश्रमवासियों ने उनका आदर किया और मदनावली के पिता जन्मेजय ने जो कि घूमते हुए वहीं आ पहुंचे थे, उन्हें अपनी कन्या दान कर दी। श्लोक ११३-११६) चक्रवर्ती का पूर्ण वैभव लेकर महापद्म हस्तिनापुर लौट आए और आनन्दमना होकर पहले की तरह माता-पिता को प्रणाम किया। वे भी उनको पाकर बहुत प्रसन्न हुए। कानों के लिए अमृत तुल्य पुत्र के असीम साहसिक कार्यों को सुनकर वे जलसिंचित वृक्ष की भांति उत्फुल्ल हो उठे । (श्लोक ११७-११८) मुनि सुव्रत स्वामी द्वारा दीक्षित आचार्य सुव्रत विचरण करते हुए एक दिन हस्तिनापुर आ पहुंचे । राजा पद्मोत्तर अनुचरों सहित उन्हें वन्दना करने गए। वन्दना करने के पश्चात् संसार विरक्ति की जननी रूपा उनकी देशना सुनी। राजा ने आचार्य से कहा'पुत्र को सिहासन पर बैठाकर जब तक मैं नहीं लौटू तब तक आप यही अवस्थान करें।' 'शुभ कार्य में विलम्ब मत करो' आचार्य श्री का यह कथन सुनकर उन्हें पुनः वन्दना कर राजा नगर में लौट आए और राज्य के प्रधान पुरुष मन्त्रीगण और सामन्तादि को बुलाकर विष्णुकुमार से बोले- (श्लोक ११९-१२३) 'पुत्र, सांसारिक जीवन दुखों का सागर है। रोग के साथसाथ हानिकारक कुपथ्य की इच्छा जैसे बढ़ती रहती है वैसे ही सांसारिक जीवों की भी प्रतिकार्य के साथ कार्य की इच्छा बढ़ती जाती है। मेरे सौभाग्य से आचार्य सुव्रत' संसार पतित मुझे उसी प्रकार हाथ बढ़ाकर सहारा देने आए हैं जिस प्रकार कुएँ के नजदीक जाते हुए अन्धे की सहायता को हाथ बढ़ा दिया जाता है। अतः आज मैं तुम्हें सिंहासन पर बैठाकर और निश्चिन्त होकर आचार्य सूव्रत से दीक्षा ग्रहण करूंगा।' (श्लोक १२४-१२६) विष्णु कुमार बोले-'पिताजी, मुझे राज्य से कोई प्रयोजन

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