Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पारंगत हूं; किन्तु उनका प्रदर्शन यहां न कर सकने के कारण वे बेकाम हो गई हैं। यहां गुरुजनों के सम्मुख वे अन्यथा सोचेंगे समझकर अपने पराक्रम को व्यक्त नहीं कर पा रहा हूं। हाय, मुझे धिक्कार है ! मैं यहां कूपमण्डुक की भांति रह रहा हूं । अतः मैं अन्यत्र जाऊँगा और अपना पराक्रम दिखाऊँगा । यह सोचकर वह उठ बैठा; किन्तु तभी सोचा, यदि मेरी पत्नी कपट निद्रा में हुई तो वह मुझे बाधा देगी । अतः उसने उसे जगाया; किन्तु वह बोली'मुझे परेशान मत करो । मेरा माथा दुःख रहा है ।' तब वीरभद्र बोला- 'तुम्हारा माथा दुख रहा है इसमें किसका दोष है ?' प्रियदर्शना बोली- 'तुम्हारा ।' वीरभद्र ने पुनः प्रश्न किया- 'कैसे ?' प्रियदर्शना बोली- 'रात्रि के इस अन्तिम प्रहर में तुम जो इस प्रकार बोल रहे हो उसी कारण । तब वीरभद्र बोला- 'तुम मुझ पर क्रोध मत करो | मैं तुम्हें इस प्रकार अब कभी दुःखी नहीं करूँगा ।' ( श्लोक १२८-१३६)
'उद्द ेश्यमूलक भाव से उसे इस प्रकार कहकर वीरभद्र ने उसके साथ केलि की । क्लान्त होकर उसकी पत्नी पुनः सो गई । उसका उद्देश्य वह जान भी नहीं पाई । इस बार उसे सचमुच निद्रामग्न देखकर वह वस्त्रादि लेकर उसका परित्याग कर घर छोड़कर चला गया । गुटिका भक्षण कर उसने स्वयं को कृष्णवर्णीय बना लिया । अक्षरों के परिवर्तन से कविता का रूप बदल जाता है । उसी प्रकार रंग परिवर्तन से आकृति भी अन्य प्रकार की होती है । तदुपरान्त वह स्वच्छन्द भ्रमण करता हुआ विद्याधर की भांति अपनी कला-कौशल से स्वयं का श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करता हुआ ग्राम, नगर में विचरण करने लगा । प्रियदर्शना भी पतिगृह त्याग कर पितृगृह चली आई । कारण, उच्चकुलजाता के लिए स्वामी बिना अन्यत्र रहना उचित नहीं होता ।' ( श्लोक १३७ - १४१) 'इस भांति घूमता हुआ वीरभद्र सिंहलद्वीप के रत्नपुर नगर में गया। वहां राजा रत्नाकर राज्य करते थे । वह उस नगर के शङ्ख से धवल गुण सम्पन्न श्रेष्ठी शङ्ख की दूकान पर जाकर बैठ गया । उसे देखकर श्रेष्ठी ने पूछा - 'तुम कहां से आए हो ?' वीरभद्र ने जवाब दिया- 'मैं ताम्रलिप्त से आया हूं | घर से रूठकर निकल पड़ा हूं ।' श्रेष्ठी ने कहा - 'पुत्र, तरुण अवस्था में