Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पुत्र मित्रगिरि को सिंहासन पर बैठाकर श्रमण दीक्षा ग्रहण कर मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग गमन किया। इस प्रकार हरिवंश में बहुत राजा हुए । कठोर तपश्चर्या के कारण उनमें कोई स्वर्ग, कोई मोक्ष को प्राप्त हुए।
(श्लोक १०२-११०) इसी भरत क्षेत्र में पृथ्वी की स्वस्तिक तुल्य मगध देश की अलङ्कार रूपा राजगृह नामक एक नगरी थी। वहां के प्रति गृह में तरुण-तरुणियों के प्रणय व्यापार में मुक्ता-मालाओं के छिन्न हो जाने के कारण इतने मोती बिखर जाते थे कि प्रभात समय परिचारिकाएँ सम्मानी से उन्हें बुहारती थी। वहाँ प्रतिगह में अश्व थे, प्रतिगृह में दानशाला, चित्रशाला और नाट्यशाला थी। मरालों के लिए जिस प्रकार सरोवर, भ्रमरों के लिए पुष्पदाम, उसी प्रकार मुनियों की सेवा के लिए भी वहाँ प्रबन्ध था।
(श्लोक १११-११४) हरिवंशोत्पन्न सुमित्र उस समय वहां राज्य करते थे । वे मुक्ता की तरह निष्कलंक और सूर्य की भाँति भास्वर थे। दुष्टों को दमन करने वाले विजयलक्ष्मी के प्रतिरूप और राजाओं में अग्रगण्य वे इस पृथ्वी का भार नवम दिकहस्ती की तरह या अष्टम वर्षधर या द्वितीय शेषनाग की तरह वहन करते थे। उदारता, दढ़ता, गाम्भीर्य आदि सब गुण जिन आगमन के सूचक होते हैं । वे गुण उनमें पूर्णमात्र में विद्यमान थे। हरिप्रिया पद्मावती की तरह उनकी पत्नी का नाम भी पद्मावती था। उनके द्वारा यह पृथ्वी पवित्र हो रही थी। आकाश जैसे चन्द्र द्वारा अलंकृत होता है उसी प्रकार राजा का यश समस्त पृथ्वी के आनन्द उत्स रूप उनके यश द्वारा अलंकृत हो रहा था। उनका चारित्र आदि सुरभिगुण, वस्त्रों को जिस प्रकार सुरभित चूर्ण द्वारा सुरभित किया जाता है उसी प्रकार राजा के हृदय को सुरभित करता था। आकाश के नक्षत्र तुल्य उनकी अनन्त गुण राजि का वर्णन वहस्पति भी यदि करें तो उसका अन्त नहीं हो सकता। उनके प्रेम के कारण ही पृथ्वी ने मानों रूप धारण किया है। ऐसे पद्मावती के साथ पृथिवीपति सुमित्र सुखभोग करने लगे।
(श्लोक ११५-१२३) आनन्द सागर में निमज्जित सुरश्रेष्ठ का जीव प्राणत कल्प का आयुष्य पूर्ण कर वहां से च्युत होकर श्रावण महीने की पूर्णिमा