Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्रकार स्तुति की:
'त्रिभुवनपति की जय हो ! निखिलजन सुहृद की जय हो ! करुणासागर की जय हो ! अप्राकृत शक्तिधारी की जय हो ! सूर्य किरणों से सर्वदा समस्त विश्व आलोकित होता है। चन्द्र किरणों से पृथ्वी का ताप दूर होता है । वृष्टि के जल से धरती को सजीवता प्राप्त होती है। हवा से वह पुनर्जीवित होती है-इनके पीछे जैसे कोई उद्देश्य नहीं होता उसी भांति हे देव, आपकी तपश्चर्या भी त्रिलोक के कल्याण के लिए है। (अर्थात् कोई उद्देश्य प्रणोदित नहीं है।) इतने दिनों तक पृथ्वी अन्धकारमय थी। अब वह आपके कारण आलोकित हो गई है, उसे चक्षु प्राप्त हुए हैं । अब नरक के द्वार बन्द हो जाएँगे। तिर्यंच योनि में सामान्य जन ही जन्म ग्रहण करेंगे। स्वर्ग उपनगर की भांति समीप हो जाएगा और मोक्ष भी अब दूर नहीं रहेगा। सबके कल्याण के लिए जब आप पृथ्वी पर विचरण करेंगे तब ऐसा कौनसा अचिन्त्य आनन्द है जिसे मनुष्य प्राप्त नहीं करेगा ?'
(श्लोक ५९-७४) इस प्रकार स्तुति कर सौधर्मेन्द्र और अरविन्द चुप हो गए। तब भगवान अरनाय ने यह देशना दी :
'संसार के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही श्रेष्ठ या आनन्द-सरोवर है। मोक्ष ध्यान की साधना से सिद्ध होता है और ध्यान मन पर निर्भर करता है। इसलिए योगी पुरुष मन को आत्मा के अधिकार में रखते हैं; किन्तु राग-द्वेष उन पर विजय प्राप्त कर उन्हें पुद्गलों के अधीन कर देते हैं। सावधानीपूर्वक निग्रह कर मन को शुभ परिणति में लगा देने पर भी निमित्त प्राप्त होने पर वे बार-बार पिशाच की भांति उसे अपने अधीन कर लेते हैं। राग-द्वेष रूपी अन्धकार में जीव को अन्धा अन्धे को ले जाने की तरह अज्ञान की अधोगति में ले जाकर नरक रूपी गह्वर में पटक देता है । द्रव्यों में आसक्ति (रति) और आनन्द (प्रीति) ही राग और अप्रीति द्वेष है। यही राग-द्वेष समस्त प्राणियों के लिए दृढ़ बन्धन रूप है और समस्त दुःखों का मूल है। संसार में यदि राग-द्वेष नहीं रहता तो यहां सुख से कोई विस्फारित नेत्र नहीं होता, उसी प्रकार दुःख से करुणा भी नहीं होता। फिर तो सभी जीवों को मोक्ष प्राप्त हो जाता। राग के अभाव में द्वेष और द्वेष के अभाव में राग होता ही