Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्रियतमा की मृत्यु का संवाद कौन सुनना चाहेगा ?'
(श्लोक ४४४-४४७) 'ऐसा सोचकर अशोक वक्ष की ऊपरी शाखा पर धनुष की प्रत्यंचा की तरह उसने रस्सी बांध दी और गले में फाँसी डाल ली। ठीक उसी समय समीप की झाड़ी से एक व्यक्ति बाहर आया और 'ऐसा मत करो, ऐसा मत करो' कहता हुआ वृक्ष पर चढ़ा एवं रस्सी काट कर उसके गले का फन्दा खोल डाला और बोला'तुम ऐसा क्यों कर रहे हो ?' वसन्तदेव ने कहा- 'मुझ भाग्यपीड़ित से इन्द्र-वारुणी की तरह तुम मुझे देखकर क्यों दु:खी हो रहे हो ? मैं मृत्यु-वरण कर अपनी प्रियतमा के विच्छेद दुःख को भूलने जा रहा था। तुमने मुझे क्यों बाधा दी?' (श्लोक ४४८-४५२)
____ 'वसन्तदेव ने उसके पूछने पर सारी कथा कह सुनाई। दूसरे को कहने से दुःख कुछ कम हो जाता है । यह सुनकर वह बोला'यदि ऐसा ही है तो विवेकवान् को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए। बल्कि अभिप्सित वस्तु को कैसे प्राप्त किया जाए उसका उपाय सोचना चाहिए। तुम्हारे इस कार्य में अवसर भी है । अतः पशु की भांति प्राण मत दो। जहां अवसर नहीं होता वहां भी आत्महत्या उचित नहीं है । मृत व्यक्ति को उसकी अभिप्सित वस्तु नहीं मिलती वह तो कर्मानुसार भिन्न गति में चला जाता है। मुझे देखो नाइच्छित वस्तु नहीं मिलने के कारण मैं भटक रहा हूं। सोचता हूं जीवत रहें तो शायद किसी दिन वह मिल भी सके । मेरी कथा सुनो :
(श्लोक ४५३-४५७) 'मैं कृत्तिकापुर का अधिवासी हूं, नाम कामपाल । यौवन में देश पर्यटन की इच्छा से घर से बाहर निकला । घूमते-घूमते शङ्खपुर नगर में पहुंचा। वहां शङ्खपाल यक्ष का उत्सव हो रहा था । अतः उसे देखने गया। वहां एक आम्र निकुञ्ज में एक सुन्दरी को देखा । वह मुझे कामदेव की किसी अन्तःपुरिका-सी लगी। मैं काम से आबद्ध-सा उसी प्रकार खड़ा उसे देखता रहा। उसने भी मेरी ओर प्रेममय दृष्टि से देखा । अपनी एक सखी से मुझे पान भेजा जो कि प्रेम और आरक्त अधरों का निदर्शन और कारण है । मैंने उसका पान ग्रहण किया और विनिमय में कुछ देने की सोच ही रहा था। उसी समय एक उन्मत्त हाथी जिस खूटे से बांधा हुआ