Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ऐसा निश्चय करने मात्र से ही मानो वे पूर्व सूचनावश आई हैं इस भाँति प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ आकर उनके सामने उपस्थित हो गयीं । विद्युतप्रभा की तरह प्रभा सम्पन्न अलङ्कार और दिव्य वस्त्रों से भूषित वे करबद्ध होकर बोलीं, 'हम वही विद्याएँ हैं जिन्हें आपने आह्वान किया । पूर्व में प्राप्त होकर हम अब वर्तमान हैं । अस्त्रों के मध्य जैसे दैवी शक्ति प्रवेश करती है उसी प्रकार अब हम आप में प्रवेश करेंगी ।' ऐसा कहते ही नदी जैसे पूर्व और पश्चिम समुद्र में गिरकर समुद्र में मिल जाती है उसी प्रकार वे भी उनके शरीर में प्रविष्ट होकर मिल गयीं । ऐसे ही वे बलवान थे, अब विद्याओं के प्रविष्ट होने से कवचयुक्त होकर सिंह से पराक्रमशाली हो गए । उन्होंने धूप और माल्य प्रदान कर विद्याओं की पूजा की । विवेकशील जो पूजा के योग्य होते हैं उनकी पूजा विस्मृत नहीं करते । ( श्लोक ९२ - ९८ ) ठीक उसी समय दमितारि का दूत पुनः आकर भर्त्सनापूर्वक बोला, 'शिशुओं की तरह अज्ञानवश तुम लोग क्यों प्रभु से विद्रोह कर रहे हो ? हम क्रीतदासियों को भेज देंगे कहकर भी अभी तक उन्हें नहीं भेजा । मूर्ख, क्या तुम लोग मरना चाहते हो ? वे क्रुद्ध हो गए हैं यह तुम्हें ज्ञात नहीं ? ये दोनों क्रीतदासियाँ भूत की तरह तुम पर सवार हो रही हैं । लगता है वे तुम्हें समूल नष्ट किए बिना नहीं जाएँगी । वे और कुछ नहीं चाहते मात्र दोनों क्रीतदासियों को ही चाहते हैं । यदि नहीं दोगे तो उन्हें तो वे लेंगे ही साथ ही तुम्हारा राज्य भी ले लेंगे ।' ( श्लोक ९९-१०३ )
उनके कथन से क्रुद्ध होने पर भी शक्तिशाली व विज्ञ अनन्तवीर्य चन्द्रिका की तरह मृदु हास्य में धीर कण्ठ से दूत को बोले( श्लोक १०४ )
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'महाराज दमितारि के योग्य उपहार तो महार्घ रत्न, अर्थ, सुशिक्षित गज और अश्व हैं, दासी नहीं । किन्तु ही चाहते हैं तो उन्हें ही ले जाओ । सन्ध्या समय यात्रा करना ।'
यदि वे दासियाँ तुम विश्राम करो
अभी तो
( श्लोक १०५ - १०६) होकर वह उसके लिए
वासुदेव के इस कथन पर सहमत
निर्दिष्ट गृह में चला गया । सोचा, उसका दूत कार्य भली-भाँति सम्पन्न हो गया है । उधर दोनों भाइयों ने जिस प्रकार स्तम्भ पर