Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विपुलमति को देखकर उनके चरणों की वन्दना की । मूर्तिमन्त तपःप्रभाव सी उनकी देह स्वर्णवर्णी थी । अनुराग को क्षीण कर उन्होंने उस पर विजय पाई थी । धर्मलाभ कह कर उन्होंने देशना दी जो कि संसार रूपी दावानल को बुझाने में वर्षा के जल-सी थी । वह देशना सुनकर कनकशक्ति ने अपनी दोनों पत्नियों और राज्य को परित्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली । ( श्लोक १७९ - १८३)
विवेकशील और विवेकमना रानियाँ भी मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा से आचार्य विमलमति से दीक्षित हो गई । इधर-उधर विचरण करते हुए कनकशक्ति एक दिन सिद्धिपद पर्वत पर पहुंचे और एक रात्रि की दृढ़ प्रतिमा धारण की । क्रूरमना हिमचूल ने जब उनको स्तम्भ की भाँति निश्चल खड़े देखा तो उन पर आक्रमण किया । उसे आक्रमण करते देखकर क्रुद्ध हुए विद्याधरों ने हिमचूल को भय दिखाकर प्रताड़ित कर दिया । मनुष्य अच्छे का ही पक्ष लेता है । प्रतिमा शेषकर मानों पूरंजीभूत तप ही हो ऐसे कनकशक्ति वहाँ से रत्नसंचय नगर गए। वहाँ सुरनिपात उद्यान में पर्वत की भाँति स्थिर होकर पुनः एक रात्रि की प्रतिमा धारण की। उसी अवस्था में क्षपक श्रेणी में आरोहण कर घाती कर्मों को क्षय कर उन्होंने सर्व प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । देवों ने आकर उनका केवलज्ञान - महोत्सव मनाया। यह देखकर भयभीत बने हिमचूल ने कनकशक्ति की शरण ग्रहण की । वज्रायुध भी उनका केवल ज्ञान महोत्सव मनाकर नगर लौट गया । ( श्लोक १८४ - १९२ )
एक दिन भगवान् क्षेमङ्कर कोटि-कोटि देव, असुर और मनुष्यों से परिवृत होकर समवसरण के लिए वहां उपस्थित हुए । अनुचरों ने चक्रवर्ती वज्रायुध को आकर निवेदित किया- 'देव, तीर्थङ्कर भगवान् क्षेमङ्कर समवसरण के लिए यहां आकर अवस्थित हैं ।' यह सुनकर संवादवाहक को साढ़े बारह करोड़ सुवर्णदान कर वे अनुचरों सहित क्षेमङ्कर के समवसरण में उपस्थित हुए । उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा देकर विधिवत् वन्दना कर वे शक्र के पीछे जाकर बैठ गए और उनकी देशना सुनी ।
( श्लोक १९३ - १९६ )
देशना के अन्त में चक्री वज्रायुध ने उन्हें वन्दना कर कहा'भगवन्, दुस्तर संसार-सागर के भय से मैं भीत हो गया हूं । सहस्रायुध को सिंहासन पर बैठाकर जब तक मैं दीक्षा लेने नहीं आऊँ