Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[१०७ ___ 'हे प्रभु ! वन्य वृषभ की तरह हम कभी किसी के वशीभूत नहीं हुए । इसीलिए जब आप यहाँ आए, हमने अज्ञानतावश आपके विरुद्धाचरण कर अपराध किया। हम पर दया करें और हमारा अपराध क्षमा करें। हमें आदेश दीजिए । अब हम आपके अधीन रहेंगे। इससे अधिक हम और क्या कह सकते हैं ?'(श्लोक २३३-२३५)
शान्तिनाथ ने उनका उपहार ग्रहण कर उन्हें आश्वस्त किया। सेनापति ने सिन्धु के उत्तर प्रान्त को जीत लिया। इस प्रकार गंगा और सिन्धू के मध्यवर्ती भू-भाग को स्वसैन्य द्वारा आच्छादित कर वे क्षुद्र हिमवन्त पर्वत के निकट गए । क्षुद्र हिमवन्त पर्वत के देवगण ने गोशीर्ष चन्दन, पद्म ह्रद के जल सहित अन्य जल और रत्न भेंट कर चक्री की अम्यर्थना की। फिर शान्तिनाथ ऋषभकूट पर्वत गए और कांकिनी रत्न से यथा नियम 'चक्रवर्ती शान्तिनाथ' यह नाम उत्कीर्ण किया, तदुपरान्त वे, जिनके शत्रुओं का मनोबल भंग हो गया था, रथ पर आरूढ़ होकर लौटते हुए वैताढय पर्वत की तलहटी में उपस्थित हुए। (श्लोक २३६-२४०)
___ इह और परकाल के सुखों के लिए उभय श्रेणियों के विद्याधर राजाओं ने चक्री की सम्बद्धित किया। फिर वे गंगा नदी के तट पर गए और उसे जीत लिया। गंगा के उत्तर प्रान्त पर सेनापति ने विजय प्राप्त कर ली। तब शान्तिनाथ खण्डप्रपाता गुहा के निकट गए और जयमालदेव को जीत लिया। दण्डरत्न की सहायता से सेनापति के ग्रहाद्वार खोल देने पर चक्र का अनुसरण करते हए चक्री ने उसमें प्रवेश किया। पूर्व की भांति उन्होंने मणिरत्न और कांकिणीरत्न कृत मण्डल के आलोक से प्रदीप द्वारा जैसे घर के अन्धकार को दूर किया जाता है वैसे ही गुहा के अन्धकार को दूर किया। फिर सेतु द्वारा उन्होंने सहज ही उन्मग्ना और निमग्ना नदियों को अतिक्रमण किया। शक्तिशाली के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। सिंह की तरह चक्री सैन्य सहित दक्षिण द्वार से निकले जो कि उनके आने पर अपने आप खुल गया था।
(श्लोक २४१-२४७) __ गंगा के विस्तृत सैकत पर जहां गंगा की तरंगों की तरह अश्व घूम रहे थे, चक्री ने अपनी छावनी डाली । निसर्प आदि नव रत्न जो कि गंगा के मुहाने के निकट अवस्थित थे शान्तिनाथ के