Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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३२] विकसित हो रहे थे। पदों पर भँवरों के गुजन से लग रहा था मानों वे शतकण्ठ से गा रहे हों। हे देव, मुझे बताइए इन स्वप्नों का क्या फल है ? साधारण मनुष्य से तो विशेष स्वप्नों के बारे में पूछा नहीं जाता है।'
(श्लोक ५-१२ राजा बोले-'देवी, तुम्हारा पुत्र बलभद्र होगा। वह रूप में देव-सा और असाधारण शौर्य का अधिकारी होगा।' (श्लोक १३)
रानी बसुन्धरा ठीक उसी प्रकार उस भ्रण की रक्षा करने लगी जैसे पृथ्वी गुप्तधन की एवं सीप मोती की रक्षा करती है । यथासमय उन्होंने पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसके वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न था, सर्वांग सुलक्षण युक्त एवं देह का वर्ण श्वेत था । पूर्ण चन्द्रोदय से समुद्र जिस प्रकार उत्फुल्ल हो जाता है उसी प्रकार राजा स्तिमितसागर पुत्र-जन्म से उत्फुल्ल हो गए। बारह दिन पश्चात् उन्होंने नव जातक का नाम अपराजित रखा कारण वह बारह आदित्यों की भाँति शोभा सम्पन्न था। जिस प्रकार अर्थ प्राप्त होने पर दरिद्र उसे सदैव आंखों के सम्मुख रखता है उसी प्रकार वे भी नवजात को कभी चूमते, कभी आलिंगन में लेते, कभी गोद में बैठाकर सदैव उसे अपने पास ही रखते ।।
(श्लोक १४-१८) श्रीविजय का जीव भी सुस्थितावर्त विमान से च्युत होकर रानी अनुद्धरा के गर्भ में प्रविष्ट हुआ। सुख-शय्याशायी रानी ने रात्रि के शेष याम में सात महास्वप्नों को अपने मुख में प्रवेश करते देखा। प्रथम तरुणसिंह को देखा जिसकी केशर केशरिया रंग की थी, नाखन चन्द्रकला-से और पूछ चवर-सी थी। द्वितीय स्वप्न में कमल पर बैठी लक्ष्मी को देखा जिसे दो हस्ती सूड से कलश पकड़े हुए क्षीर सागर के जल से अभिषेक कर रहे थे । तीसरे में सूर्य देखा जो कि रात्रि में भी गहन अन्धकार को दूर कर अपनी किरणों से आकाश को उद्भासित कर रहा था। चतुर्थ स्वप्न में स्वच्छ शीतल मधुर जल से परिपूर्ण कुम्भ देखा । पंचम में विभिन्न जलचर जीवों से परिपूर्ण महासमुद्र देखा जो कि अन्तनिहित रत्नराशि से उद्भासित था एवं जिसकी तरंगें आकाश को स्पर्श कर रही थीं। छठे स्वप्न में पंचवर्णीय रत्नराशि देखी जिसकी विभा इन्द्रधनुष की विभा की तरह चतुर्दिक विच्छुरित हो रही थी।