Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 4
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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कि मैं उन्हीं के जैसा बनू ।
( श्लोक ४८६ - ४९० ) श्रीविजय निदान करके और अमिततेज बिना निदान के ही मृत्यु के पश्चात् प्राणत नामक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए | वहाँ वे सुस्थितावर्त और नन्दितावर्त्त नामक विमान में मणिचूल और दिव्यचूल नामक देव बनकर सुखपूर्वक रहने लगे । देव रूप में बाइस सागरोपम का आयुष्य भोग सुख में निमज्जित होकर आनन्द से रहने लगे । वहाँ तो सोचने मात्र से ही सुख प्राप्त हो जाता है । (श्लोक ४९१-४९३)
प्रथम सर्ग समाप्त
द्वितीय सर्ग
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह के अलङ्कार रूप रमणीय विजय में सीता नदी के दक्षिण तट पर लक्ष्मी के निवास रूप शुभा नामक नगरी थी। वह नगरी महा ऐश्वर्य सम्पन्न और पृथ्वी की सारभूत सौन्दर्य के प्रतीक रूप थी । उस नगरी के राजा थे स्तिमितसागर । उन्होंने दृढ़ता में मेरु पर्वत और गम्भीरता में समुद्र को भी अतिक्रम कर डाला था । उनके बसुन्धरा और अनुद्धरा नामक दो पत्नियाँ थी । उन्होंने सौन्दर्य में अप्सराओं को भी पराजित कर दिया था । साथ ही वे शील सम्पन्न भी थीं । ( श्लोक १-४ ) अमिततेज के जीव ने नन्दितावर्त विमान से च्युत होकर रानी बसुन्धरा के गर्भ में प्रवेश किया । सुख - शय्या में सोई हुई वसुन्धरा ने बलदेव के जन्म सूचक चार महास्वप्नों को अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा । आनन्द के प्लावन से मानों लज्जित होकर निद्रा दूर भाग गई हो इस प्रकार वे उसी समय राजा को बोलीं'देव, चन्द्र जैसे मेघ में प्रवेश करता है उसी प्रकार मैंने स्फटिक पर्वत-सा चार दाँतों वाला हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते देखा । निष्कलंक शरद्कालीन मेघों से मानों गुम्फित हो ऐसे क्रीड़ारत श्वेतवर्ण वृषभ ने जिसका कुम्भ ऊँचा और पूँछ सीधी थी मेरे मुख में प्रवेश किया । फिर ऐसे चन्द्र को देखा जिसकी किरणें दूर-दूर तक विस्तृत थी जो कि दिक्कुमारियों के कर्णाभरण - सा लग रहा था । तदुपरान्त एक सरोवर देखा जिसमें सहस्र कमल
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