Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 11
________________ जैनागममें परंपराको बहुतही ऊंचा स्थान दिया है, जो वचन परंपराके अनुकूल है वे बाह्य और प्रामाणिक माने जाते है। जिन वचनोंमें परंपराकी अवहेलना की जाती है वे उच्छंखल वचन होनेसे कभी भी ग्राह्य नहीं होते और न प्रमाणही माने जाते हैं। सोमसेन महाराजने · परंपराके सामने अपना सिर झुकाया है । यथा यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः सामन्तभदैस्तथा सिद्धान्ते गुणभद्रनाथमुनिभिर्भट्टाकलंकैः परैः। श्रीसूरिद्विज नामधेयविबुधैराशाधरैर्वाग्वरै स्तष्टा रचयामि धर्मरसिकं शास्त्रं त्रिवर्णात्मकं ॥ यह ग्रन्थ एक संग्रह ग्रंथ हैं । ग्रन्थान्तरोंके प्राचीन श्लोक इसमें उद्धृत किये गये हैं। विषय प्रतिपादक सभी श्लोक ग्रन्थान्तरोंके कहे जाय तो अत्युक्ति न होगी। जैनमतसे समता रखने वाले मृत्तिका-शुद्धि जैसे व्यावहारिक श्लोकोंका संग्रह भी इसमें किया गया है । इस बातको ग्रंथ कर्ता स्वयं स्वीकार करते हैं । यथा ग्लोका येऽत्र पुरातना विलिखिता अस्माभिरन्वर्थतस्ते दीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ते परं। नानाशास्त्रमतान्तर यदि नवं प्रायोऽकरिष्यं त्वहं वशाऽमाऽस्य महो तदति सुधियः केचित्प्रयोगंवदाः ॥ जब कि इसमें ऐसे श्लोकोंका भी संग्रह है तब संभव है कि उन्होंने कोई विषय जन धर्मके प्रतिकुल भी लिख दिये हों ऐसी आशंका करना भी निर्मल है। क्योंकि वे भी स्वयं जन थे, जैसा खयाल पद पद पर हम करते हैं वैसा वे भी करते थे, जैसी हमारी ( वर्तमान समयके पुरुषोंकी ) जैनमत के साथ हमदर्दी है वैसी उनकी भी थी, ऐसा नहीं है कि हमही जनमतकी अनुकूलता-प्रतिकूलताका खयाल करते हों और उन्होंने न किया हो । केवल हमही (वर्तमानके पुरुघोहीने) जैनत्वका ठेका ले लिया हो और वे इस ठेके से पराङ्मुख हो । सारांश, अपने मंतका पक्ष जैसा हमें है वैसा उन्हें भी था। अत एव ऊपरकी आशंका किसी कामकी नहीं है। कथन और आक्षेप । इस ग्रन्थमें मुख्यतः पाक्षिक त्रैवर्णिकके आचारका कथन है । नैष्ठिक श्रावक और मुनिके आचारणका कथनभी संक्षेपतः इसमें पाया जाता है। कितने ही विषय ऐसे होते हैं जो अपने अपने स्थानमें ही पालन करने योग्य होते हैं कितने ही ऐसे भी हैं जो हैं तो नियमरूपसे ऊपरके दर्जेमें ही पालन करने योग्य परंतु अभ्यास रूपसे नीचेके दर्जेमें भी पालन किये जाते हैं और कितनेही विषय ऐसे भी हैं जो ऊपर और नीचे दोनोंही दोंमें पालन किये जाते हैं पर स्वस्थानके मूलाचरणका त्याग नहीं किया जाता. कितनेही लोग जो विधि-निषेध मुनिके लिए है उसको नैष्ठिक और पाक्षिकके लिए और जो नैष्ठिकके लिए है उसको पाक्षिकके लिए भी समझ लेते हैं । वे इस खयालको बिलकुल भूल जाते हैं कि यह विधि-निषेध किसके लिए तो है और किसके लिए नहीं है अथवा यह अमुके लिए है मैं अमुक के लिए इसकी योजना कैसे करता हूं। ऐसे लोग मनःकल्पित एक पक्षमें उतर - १ इसका अर्थ पृष्ठ ३ श्लोक नं. ९ में देखो।

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