Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 10
________________ मूखान मूढांश्च गर्विष्ठान जिनधर्मविवर्जितान्। . कुवादिवादिनोऽत्यर्थं त्यजेन्मौनपरायणः ।। ग्रन्थ कर्ताने अनेक स्थानों में देव, गुरु, शास्त्र, चैत्यालय आदिकी भक्तिपूर्ण स्तुतिएं की. हैं । इससे उनकी जैनधर्म पर असाधारण भक्ति प्रकट होती है । जैनोंका उनके हृदयमें बे हद्द आदर था। यथा रोगिणो दुखितान् जीवान जैनधर्मसमाश्रितान् । संभाव्य वचनैर्मुष्टैः समाधानं समाचरेत् ॥ जब कि ग्रन्थकर्ता अन्यधर्मों से अप्रीति और जैनधर्मसे प्रीति दिखला रहे हैं तब मालूम नहीं पड़ता कि कौनसे स्वार्थवश उन पर उक्त लांछन लगाया जाता है। इससे तो यही साबित होता है कि यह ग्रन्थ उन लोगोंकी स्वार्थवासनाओंमें रोड़े अटकाता है अतः अपना मार्ग साफ करने के लिए पहले वे इन छलों द्वारा अपना मार्ग साफ करना चाहते हैं । हमें तो ग्रन्थ परिशीलन से यही मालूम हुआ कि ग्रन्थकर्ताकी जैन धर्मपर असीम भक्ति थी, अजन विषयोंसे वे परहेज करते थे। लोग सामुखां अपनी स्वार्थसिद्धिके लिए उन पर अवर्गवाद लगाते हैं। ग्रन्थकी प्रमाणता। ग्रन्थकी प्रमाणतामें भी हमें कुछ संदेह नहीं होता । प्रतिपादित विषय जैनमतके न हों और उनसे विपरीत शिक्षा मिलती हो तो प्रमाणतामें संदेह हो सकता है। ग्रन्थकी मूल भित्ति आदि पुराण परसे खड़ी हुई है । जिनका आधार उन्होंने लिया है उनके ग्रन्थोंमें भी वे विषय पाये जाते हैं । किंबहुना इस ग्रन्थके विषय ऋपिप्रणीत आगममें कहीं संक्षेपसे और कहीं विस्तारसे पाये जाते हैं । अत एव हमें तो इस ग्रन्थमें न अप्रमाणता ही प्रतीत होती है और न आगम विरुद्धता ही। परंतु जो लोग वर्णाचार जैसे विषयों से अनभिज्ञ हैं, उनके पालनमें असमर्थ हैं, उनकी परंपराका जिनमें लेशभी नहीं रहा है वे इसके विषयोंको देख कर एक वार अवश्य चौकेंगे। जो वर्णाचारको निरा ढकोसला समझते हैं वे अवश्य इसे धूर्त और दौंगी प्रणीत कहेंगे जिनके मगजमें भट्टारक और त्रिवर्णाचार नाम ही शल्यवत् चुभते हैं वे अवश्य ही इसे अप्रमाणता और आगमविरुद्धताकी और खसीटेंगे । इसमें जरा भी संदेह नहीं। पद्मपुराण,हरिवंशपुराण,महापुराण, यशस्तिल-1 कचंपू जैसे पुराण और चरित ग्रन्थोंको, विद्यानुवाद, विधानुशासन, भैरवपद्मावतीकल्प, ज्वालामलिनीकल्प जैसे मंत्रशास्त्रोको, इन्द्रनंदिप्रतिष्ठापाठ, वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ, आशाधरप्रतिष्ठापाठ, नेमिचंद्रप्रतिष्ठापाठ, अकलंकप्रतिष्ठापाठ जैसे पूजा शास्त्रोको, रत्नकरंडक, मूलाचार, आचारसार धर्मामृत जैसे आचार ग्रन्थोंको, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार जैसे लोकव्यवस्थापक शास्त्रोंको एवं एक एक कर जैनमतके सभी विषयोंको अप्रमाण और अलीक (झूग)मानते हैं वे इसग्रन्थको अप्रमाण और ढौंगी प्रगीत माने इसमें आश्चर्य ही क्या है । जब कि जैनधर्म जैसे कल्याणकारी धर्मकोभी झूठा कहनेवाले अजैन ही नहीं. जैननामधारीभी संसारमें मौजूद हैं तब इस सामान्य ग्रन्थकी अवहेलना करनेवाले इस संसारमें न पाये जाय यह हो नहीं सकता ! १-२ इनका अर्थ पृष्ट १७४ में श्लोकनं ९१-९२ में देखो।

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