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तीर्थ माला संग्रह
नन्दीश्वर द्वीप स्थित और व्यंतरदेवों के भूमिगर्भ स्थित नगरों में रहे हुए चैत्यों की शाश्वत जिन प्रतिमानों को भी वन्दन किया है । नियुक्ति की गाथा तीन सो बत्तीसवीं में नियुक्तिकार ने तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए सात शाश्वत जैन तीर्थों को वंदन किया है, जिनमें एक छोड़कर शेष सभी प्राचीन तीर्थ विच्छिन्न हो चुके हैं । फिर भी शास्त्रों तथा भ्रमण वृतान्तों से इनका जो वर्णन मिलता है उनके आधार पर इनका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया जायगा ।
(१) अष्टापद -
प्रष्टापद पर्वत ऋषभ देव कालीन प्रयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था, भगवान ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते तब " अष्टापद" पर्वत पर ठहरते थे और अयोध्यावासी राजा प्रजा उनकी धर्मसभा में दर्शन, वन्दनार्थ तथा धर्म श्रवरणार्थ जाते थे परन्तु वर्तमान कालीन प्रयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे अष्टापद माना जा सके । इसके कारण अनेक ज्ञात होते हैं, पहला तो यह है कि उत्तर दिग् विभाग में भारत के रही हुई पर्वत श्रेणियां उस समय में इतनी ठंडी और हिमाच्छादित नहीं थी, जितनी प्राज हैं । दूसरा कारण यह है कि अष्टापद पर्वत के शिखर पर भगवान् ऋषभ देव उनके गणधर तथा अन्य शिष्यों का निर्वारण होने के बाद देवतात्रों ने तीन स्तूप और भरत चक्रवर्ती ने "सिंह निषद्या" नामक जिन चैत्य बनवाकर उसमें चौबीस तीर्थङ्करों की वर्णं मानोपेत प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाके चैत्य के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल स्थापित किये थे | इतना ही नहीं परन्तु पर्वत को चारों और से छिलवा कर सामान्य भूमि गोचर मनुष्यों के लिए शिखर पर पहुँचना अशक्य बनवा दिया था । उसकी ऊँचाई के प्राठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थी, इसी कारण से इस पर्वत का 'अष्टापद' यह नाम प्रचलित हुआ था, भगवान् ऋषभदेव के इस निर्वाण-स्थान के दुर्गम बन जाने के बाद देव, विद्याधर, विद्याचारण, लब्धिधारी मुनि और जंघा चारण मुनियों के सिवाय अन्य
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