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प्रथमोऽध्यायः
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सम्यग्ज्ञानिनो बाह्याभ्यन्तरक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम् । पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिर्वा दर्शनम् । जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिर्वा ज्ञानम् । चरति चर्यते चरणमात्रं वा चारित्रम् । मोक्षणं मोक्षः । स च द्रव्यभावस्वभाव सकलकर्मसंक्षये पुंसोऽनन्तज्ञानादिस्वरूपलाभ: । मृष्टोऽसौ मार्गः । मृग्यत इति वा मार्गः । स च संसारकारण विनिवर्तनसमर्थो मोक्षप्राप्त्युपाय उच्यते । स च समुदितसम्यग्दर्शनादित्रितयात्मक एव। व्यस्तस्य सद्दर्शनादेर्मोक्ष हेतुत्वानुपपत्तेः । रसायनविषयव्यस्तश्रद्धानादेः सर्वव्याधिविनिवृत्तिहेतुत्वाभाववत् । किंच संसारकारणं देहिनां मिथ्याभिनिवेशाऽज्ञानविपरीतचरणरूपमन्यतमापाये संसरणापकर्षविशेषाऽनिश्वयात् । तच्च त्रिविधं संसारकारणं दर्शनमात्रेण ज्ञानमात्रेण चरणमात्रेण कैकेन द्वाभ्यां वा न निवर्तते । तत्प्रतिपक्षभूतेन तत्त्वश्रद्धानादित्रयेणैव तस्य निवर्तयितु ं शक्यत्वात् । न चाज्ञानमात्रहेतुकः संसारस्तत्त्वज्ञानोत्पत्तावज्ञाननिवृत्तावपि संसारेऽवस्थानसंभवात् । अन्यथाप्तस्य तत्त्वोप देशाघटनात् । प्रज्ञानासंयमहेतु नियतत्वमपि न संसारस्य घटते । स्वयमाविर्भूततत्त्वज्ञान वैराग्यस्या
किया जाता है और चरण मात्र यह ज्ञान और चारित्र शब्द का निरुक्ति अर्थ है । "मोक्षणं मोक्षः " छूटना यह मोक्ष शब्द की निरुक्ति है । द्रव्यकर्म और भावकर्म रूप सकल कर्मों का क्षय होने पर आत्मा के अनन्तज्ञानादि स्वरूप की प्राप्ति होना मोक्ष है । "मृष्टोऽसौ मार्गः, मृग्यते इति वा मार्ग : " खोजना अथवा खोजा जाना यह मार्ग शब्द की निरुक्ति है, वह संसार के कारणों के दूर करने में समर्थ ऐसा मोक्ष के प्राप्ति का उपाय है जो कि मिले हुए सम्यग्दर्शन आदि तीन रूप ही है ।
पृथक् पृथक् रूप अकेले सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के कारण नहीं हो सकते, जैसे कि रसायन सम्बन्धी श्रद्धान या मात्र ज्ञान रोग को दूर करने में समर्थ नहीं होता । दूसरी बात यह है कि जीवों के संसार के जो कारण हैं वे मिथ्यात्व, अज्ञान और विपरीत आचरण रूप (हिंसादि रूप ) हैं इनमें से एक का अभाव होने पर संसार का अभाव देखा नहीं जाता । वे तीन प्रकार के संसार के कारण अकेले दर्शन मात्र से, ज्ञानमात्र से या चारित्रमात्र से नष्ट नहीं होते तथा ज्ञान चारित्र, दर्शन चारित्र और ज्ञान दर्शन ऐसे दो-दो कारणों द्वारा भी नष्ट नहीं होते हैं । किन्तु उन मिथ्यात्वादि के प्रति पक्षभूत संसार का कारण मात्र अज्ञान ही है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तत्त्वज्ञान होने पर अज्ञान तो दूर होता है किन्तु उस तत्त्वज्ञानी की संसार में स्थिति बनी रहती है । यदि तत्त्वज्ञान होते ही संसार का अभाव अर्थात् मुक्ति होना स्वीकार करते हैं तो उस तत्त्वज्ञानी आप्त पुरुष के अन्य मुमुक्षु जीवों को तत्त्व का उपदेश देना घटित नहीं होता है ।