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तत्त्वानुशासन
किधरसे कितना सकुचित कर उसे ग्रन्थके वस्तुत निर्माण-कालके समीप लाया जा सकता है। इसके लिये सबसे पहले उत्तरपुराणको लिया जाता है, जो आपमहापुराणका ही एक अग है और जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्राचार्य-द्वारा रचित हैं । इस पुराण (पर्व ६४) मे, कुन्थुनाथचरितको समाप्त करते हुए, एक पद्य निम्न प्रकारसे दिया हुआ है :
देहज्योतिषि यस्य शकसहिताः सर्वेपि मग्ना सुरा. ज्ञानज्योतिषि पचतत्त्वसहितं मग्न नमश्चाऽखिलम् । लक्ष्मीधामदधद्विधूतविततध्वान्तः स धामद्वय
पथान कथयत्वनन्तगुरणभृत्कुन्युभवान्तस्य व ॥५५॥ इस पद्यके साथ तत्त्वानुशासनके अन्तिम पद्यको अवलोकन कीजिये, जो इस प्रकार है -
देहज्योतिषि यस्य मजति जगत् दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरामो भूर्भुव स्वस्त्रयी। शब्दज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी
स श्रीमानमराचितो जिनपतियोतिस्त्रयायाऽस्तु न ॥२५॥ इस पद्यमे उत्तरपुराणके पद्यसे जहां महत्वको विशेपताका दर्शन होता है वहाँ उसके आशिक अनुसरण का भी पता चलता है और यह साफ मालूम होता है कि तत्त्वानुशासनकारके सामने अथवा उसकी स्मृतिमे इस पद्यको रचते समय, उत्तरपुराणका उक्त पद्य रहा है। इसी प्रकार एक अनुसरण ग्रन्थके १४८ वें पद्यमे गुणभद्राचार्य-प्रणीत आत्मानुशासनके २४३ वें पद्यका भी दृष्टिगोचर होता है। दोनो पद्य इस प्रकार हैं :
मामन्यमन्यं मा मत्वा सान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे। नान्योऽहमहमेवाऽहमन्योन्योन्योऽहमस्ति न ।। (मात्मानु०) नाऽन्योस्मि नाऽहमस्त्यन्यो नाऽन्यस्याऽह न मे पर । अन्यस्त्वन्योऽहमेवाऽहमन्योऽन्यस्याऽहमेव मे ।। (तत्त्वानु०)