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ध्यान-शास्त्र
१८९ व्याख्या—यहाँ मोक्षके इच्छुक योगीको ध्यानके निरन्तर अभ्यासकी प्रेरणा की गई है और उस अभ्यासके पूर्व मिथ्यादर्शनादिरूप बन्धके कारणोको त्यागकर मोक्षके हेतुरूप सम्यग्दर्शनादिमय रत्नत्रयके ग्रहणकी आवश्यकता व्यक्त की है अर्थात् मुमुक्षुको बन्धहेतुओंके त्याग और मोक्षहेतुओके ग्रहणपूर्वक ध्यानका निरन्तर अभ्यास करना चाहिये, ऐसा प्रतिपादन किया है।
उत्कृष्ट ध्यानाम्यासका फल ध्यानाऽभ्यास-प्रकर्षेण 'त्रु टयन्मोहस्य योगिनः । चरमाऽङ्गस्य मुक्तिः स्यात्तदैवाऽन्यस्य च क्रमात् ।। २२४
'ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहको नाश करनेवाले चरमशरीरी योगीके तो उसी भवमे मुक्ति होती है और जो चरमशरीरी नहीं उसके क्रमशः मुक्ति होती है।'
व्याख्या-यहां, उत्कृष्ट ध्यानकै फलका निर्देश करते हुए, बतलाया है कि जो योगी उत्कृष्ट-ध्यानाभ्यासके द्वारा मोहका नाश करनेमे प्रवृत्त है वह यदि चरमशरीरी है तो उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त होता है, अन्यथा कुछ और भव लेकर क्रमशः मुक्तिको प्राप्त करता है।
तथा ह्यचरमाऽङ्गस्य ध्यानमभ्यस्यतः सदा। निर्जरा संवरश्च स्यात्सकलाऽशुभकर्मणाम् ॥२२॥ आस्रवन्ति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणम् । यमहद्धिर्भवत्येष त्रिदशः कल्पवासिषु ॥२२६॥ १. सम्पादनोपयुक्त प्रतियोंमे 'तुद्यन्' पाठ पाया जाता है, जो ठीक नही,
वह 'तुदन् या त्रु टयन्' होना चाहिये । २. मु तदा अन्यस्य।