Book Title: Tattvanushasan Namak Dhyanshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 330
________________ २२० तत्त्वानुशासन 'प्रहततमसः' विशेषण उस अन्धकारके पूर्णत विनाशका सूचक है जो कर्मपुद्गलोके सम्पर्कसे आत्मामे वैभाविक-परिणमनके रूपमे होता है, और इसलिये जिनका वैभाविक-परिणमन सर्वथा विनष्ट हो गया है उन्ही सिद्धोंका इस विशेषणपदके द्वारा यहाँ ग्रहण है। तीसरा विशेषण 'सिद्धिनिलया.' उस सिद्धिके निवासस्थानरूपका वाचक है जो सारे विभाव-परिणमनके अभाव हो जाने पर स्वात्मोपलब्धिके रूपमे प्राप्त होता है। जैसा कि श्रीपूज्यपादाचार्यके 'सिद्धि. स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहारात्' इस वाक्यसे प्रकट है। इन तीनो विशेषणोसे उन सिद्धोका स्पष्टोकरण तथा अन्योसे पृथक्करण हो जाता है जिनका इस पद्यमें ग्रहण है। इसी तरह आचार्योंका 'वर्याः' और उपाध्यायो तथा साधु-मुनियोका 'सत्' विशेषण उस अर्थका निर्देशक है जिसका ग्रन्थमे 'अन्यत्र (१३०) 'यथोक्तलक्षरणाः ध्येयाः सूयु पाध्यायसाधवः' इस वाक्यके 'यथोक्तलक्षणा' पदमें उल्लेख है। इससे आचार्यपरमेष्ठीको आगमोक्त ३६ गुणोसे सम्पन्न, उपाध्यायपरमेष्ठीको २५ गुणोसे विशिष्ट और साधुपरमेष्ठीको २८ मूलगुणोसे पूर्णत युक्त समझना चाहिये, जैसा कि उक्तवाक्यकी व्याख्यामें बतलाया जा चुका है । देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगद्दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञान-ज्योतिषि च स्फूटत्यतितरामों भूर्भुव स्वस्त्रयो। शब्द-ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी स श्रीमानमराचितो जिनपतिज्योति स्त्रयायाऽस्तु न ॥२५६ इति श्रीनागसेनसूरि-दीक्षित-रामसेनाचार्य-प्रणीत सिद्धि-सुखसम्पदुपायभूतं तत्त्वानुशासनं नाम ध्यान-शास्त्र समाप्तम् ।

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