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तत्त्वानुशासन और वह यह कि मुक्तिको प्राप्त आत्मा अभावरूप नही होता, न चैतन्य गुणसे शून्य होता है और न उसका चैतन्य अनर्थक ही होता है, वह तो अपने स्वभावमे स्थित हुआ ज्ञानादि-गुणोंसे सदा युक्त एव विशिष्ट रहता है और त्रिकाल-विषयोको जानतेदेखते रहने तथा अपने उक्त सुखका अनुभव करते रहनेसे उसका चैतन्य कभी अनर्थक नही होता-सदा सार्थक बना रहता है।
मोक्षसुख-विपयक शका-समाधान ननु चाऽक्षस्तदर्थानामनुभोक्तः सुखं भवेत् । अतीन्द्रियेषु मुक्तेषु मोक्षे तत्कीदृश सुखम् ॥२४०॥ इति चेन्मन्यसे मोहात्तन्न श्रेयो मतं यत । नाऽद्यापि वत्स! त्वं वेत्सि स्वरूप सुख-दुःखयो.॥२४१॥
'यहाँ कोई शिष्य पूछता है कि 'सुख तो इन्द्रियोंके द्वारा उनके विषयोको भोगनेवालेके होता है, इन्द्रियोंसे रहित मुक्तजीवोंके वह सुख कैसा ? इसके उत्तरमे प्राचार्य कहते हैं-हे वत्स ! तू जो मोहसे ऐसा मानता है वह तेरी मान्यता ठीक अथवा कल्याणकारी नहीं है, क्योकि तूने अभीतक (वास्तधमे) सुखदुःखके स्वरूपको ही नहीं समझा है-इसीसे सासारिक सुखको, जो वस्तुत दुखरूप है, सुख मान रहा है।'
व्याख्या-पिछले एक पद्यमे जिस अतीन्द्रिय सुखके अनुभवनको बात कही गई है उसके विषयमे यहां जो शका उठाई गई है वह बहुत कुछ स्पष्ट है। उत्तरमे आचार्य ने शिष्यसे इतना ही कहा है कि यह तेरा मोह है जिसके कारण तू इन्द्रियो द्वारा गृहीतविषयोके उपभोक्ताके ही सुखका होना मानता है, मालूम