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ध्यान-शास्त्र
२१७ पडता है। दूसरा विशेषण ग्रन्थकी शब्द-रचनासे सम्बन्ध रखता है, और वह कठिन गूढ शब्दोके प्रयोगसे रहित अर्थकी स्पप्टताको लिये हुए है, इसमे कोई सन्देह नही है। 'जगतो हिताय' पद ग्रन्थ-निर्माणके उद्देश्यको व्यक्त करता है, जो कि जगतका हितसाधन है और यह ग्रन्थके पद-पद परसे व्यक्त होता है । सारा ग्रन्थ जगतके हितको चिन्ता और उसमे अपना ज्ञान उंडेल देने की सद्भावनाको लिये हुए है। इस तरह प्रत्येक विशेषणादि-पद जचातुला एव अतिशयोक्तिसे रहित मालूम होता है और ऐसा होना ग्रन्थ और ग्रन्थकारकी बहुत वडी प्रामाणिकताका द्योतक है।
अन्त्य-मंगल' जिनेन्द्रा सद्ध्यान-ज्वलन-हुत-घाति-प्रकृतयः प्रसिद्धाः सिद्धाश्च प्रहत-तमसः सिद्धि-निलयाः। सदाऽचार्या वर्याः सकल-सदुपाध्याय-मुनयः
पुनन्तु स्वान्त नस्त्रिजगदधिकाः पंचगुरवः ॥२५८।। __'वे अर्हज्जिनेन्द्र, जिन्होने प्रशस्त ध्यानाग्निके द्वारा धातियाकोंकी प्रकृतियोको भस्म किया है वे प्रसिद्ध सिद्ध, जिन्होने (विभावरूप) अन्धकारका पूर्णत. विनाश किया है तथा जो (स्वात्मोपलब्धि रूप) सिद्धिके निवास स्थान हैं; वे श्रेष्ठ प्राचार्य और वे सब प्रशसनीय उपाध्याय तथा मुनि-साधु, जो तीन लोकके सर्वोपरि गुरु पचपरमेष्ठी हैं, वे हमारे अन्त करणको सदा पवित्र करें-उनके चिन्तन एवं ध्यानसे हमारा हृदय पवित्र हो।'
व्याख्या-यहाँ अन्त्य-मगलके रूपमे पच गुरुवोका स्मरण
१. अन्त्यमंगलके दोनो पद्य सि जु प्रतियोंमे नहीं हैं।