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तत्त्वानुशासन
शास्त्रगुरु (विद्यागुरु) हैं, पुण्यमूर्ति और ऊंचे दर्जेके चरित्र तथा कीर्तिको प्राप्त श्रीमान् नागसेन जिसके दीक्षागुरु हुए हैं उस प्रबुद्धबुद्धि श्रीरामसेन विद्वान्ने, गुरुवोके उपदेशको पाकर, इस सिद्धि-सुख-सम्पतके उपायभूत तत्त्वानुशासन- शास्त्रकी, जो कि स्पष्ट असे युक्त है, जगतके हितके लिये रचना की है ।'
व्याख्या - इन प्रशस्ति-पद्योमे ग्रन्थकार महोदय श्रीरामसेनने अपने शास्त्र गुरुवो और दीक्षागुरुका नामोल्लेख किया है और अपने द्वारा इस ग्रन्थके रचे जानेकी सूचना की है। चारो शास्त्रगुरुवोके नामोल्लेखमे किसीभी नामके साथ किसी खास विशेषण पदका प्रयोग नही किया गया, जिससे यह मालूम होता कि वे अमुक शास्त्र के विशेषज्ञ थे अथवा अमुक सघ या गण- गच्छसे सम्बन्ध रखते थे । दीक्षागुरुके नामके साथ दो विशेषण-पदोका प्रयोग किया गया है -- एक 'पुण्यमूर्ति ' और दूसरा 'उद्धचरित्रकोति : ' --, जिनसे मालूम होता है कि नागसेनाचार्य पुण्यात्मा और ऊंचे दर्जे के चरित्रवान् तथा कीर्तिमान् थे । अपने लिये दो साधारण विशेषण पदोका प्रयोग किया है— एक 'प्रबुद्धधिषणेन' और दूसरा 'विदुषा', जो यथार्थ जान पडते हैं। 'गुरूपदेशमासाद्य' पदका सम्बन्ध 'बुद्धधिषरणेन' और 'व्यरचि' दोनो पदोके साथ लगाया जा सकता है । प्रथम पदके साथ उसे सम्बन्धित करनेसे यह अर्थ होता है कि श्रीरामसेन अपने गुरुवोके उपदेशको पाकर बुद्धिके विकासको प्राप्त हुए थे, जो कि ग्रन्थ परसे स्पष्ट है, और दूसरे पदके साथ सम्बन्धित करने पर यह अर्थ होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ उन्होने अपने दीक्षागुरु अथवा किसी दूसरे गुरु या गुरुवोके उपदेश एव उनकी प्रेरणा से रचा है । तत्त्वानुशासन ग्रन्थके दो विशेषण दिये है-- एक 'सिद्धिसुखसम्पदुपायभूत' दूसरा 'स्फुटार्थम्' । पहला विशेषण वडा ही महत्वपूर्ण है और वह ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषयकी दृष्टिसे बहुत ही अनुरूप एवं यथार्थ जान