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तत्त्वानुशासन बतलाया है और यह स्पष्ट घोषणा की है कि उनके कुशल (सुखहेतुक), अकुशल : (दुखहेतुक) कर्म और लोक परलोकादिककी कोई व्यवस्था नही बनती । इस विषयमे 'स्व-पर वैरी कौन ?' नामक निबन्ध जो 'अनेकान्त' वर्ष ४ किरण १ मे तथा 'समन्तभद्र-विचार-दीपिका' मे प्रकट हआ है, खास तौरसे देखने योग्य है।
यहाँ पर इतना और जान लेना चाहिये कि स्याद्वादी उन्हे कहते हैं जो स्याद्वाद न्यायके अनुयायी हैं अथवा 'स्यात्' शब्दकी अर्थ-दृष्टिको लेकर वस्तु-तत्वका कथन करनेवाले हैं। 'स्यात् शब्द सर्वथारूपसे---सत् ही है, असत् ही है, नित्य हो है, अनित्य ही है इत्यादि रूपसे प्रतिपादनके नियमका त्यागी और यथादृष्टको-जिस प्रकार सत् असत् आदि रूपसे वस्तु प्रमाणप्रतिपन्न है उसको अपेक्षामे रखनेवाला होता है । इसीसे स्याद्वाद सर्वथा एकान्तका त्यागी होनेसे कथचिदादि-रूपसे वस्तुकी व्यवस्था करता है अस्ति-नास्ति आदि सप्तभगात्मक नयोकी अपेक्षाको साथमे लिये रहता और मुख्य-गौणकी कल्पनासं हेय तथा उपादेयका विशेषक होता है । स्याद्वादको अनेकान्तचाद भी कहते हैं।
१. कुशलाऽकुशल कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।
एकान्तनहरक्तेषु नाथ ! स्व-पर-वैरिषु ॥ देवागम ८ २. 'युगवीर-निबन्धावली मे भी उसे देखा जा सकता है । ३ सर्वथा-नियम-त्यागी यथादृष्टमपेक्षकः ।
स्याच्छब्दस्तावके न्याये नाऽन्येषामात्मविद्विषाम् ॥ स्वयभू०१०२ ४ स्याद्वादः सर्वथकान्त-त्यागात् किंवृत्तचिंद्विधिः ॥ । सप्तभगनयापेक्षो हेयादेयविशेषक ।। -देवागम १०४