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तत्त्वानुशासन
व्याख्या - यहाँ यह बतलाया गया है कि जिस बन्धादि चतुष्टयका पिछले चार पद्योमे उल्लेख है उसमें भो मोक्ष पदार्थ सारभूत है --अर्थात् पुरुषार्थ चतुष्टयमे ही वह उत्तम अथवा सारभूत नही, किन्तु इस चतुष्टयमे भी वह उत्तम एव सारभूत है । साथ ही यह सूचना की गई है कि चूंकि मोक्षको प्राप्ति ध्यानपूर्वक होती है-विना ध्यानके वह नही बनती - इसलिये ध्यानके विषयको ही यहाँ थोडेसे विस्तार द्वारा स्पष्ट किया गया है।
सम्पूर्ण कर्मो का आत्मासे सम्बन्ध विच्छेदरूप अभावका नाम मोक्ष है । कर्मोंका यह अभाव अथवा विश्लेषण ध्यानाग्निसे उन्हें जलानेके द्वारा बनता है । पवनसे प्रज्वलित हुई अग्नि जिस प्रकार चिरसचित ईंधन (तृण - काष्ठादिके समूह) को शीघ्र भस्म कर देती है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि भी चिरसचित अपार कर्मराशिको क्षण भरमे भस्म करनेके लिये समर्थ होती है' । अथवा जिस प्रकार सारे शरीरमे व्याप्त हुआ विष मत्र - शक्तिसे खीचा जाकर दूर किया जाता है, उसी प्रकार सारे आत्म- प्रदेशोंमे व्याप्त हुआ कर्मरूपी विष ध्यान - शक्तिसे खीचा जाकर नष्ट किया जाता है | ध्यानाग्निके विना योगी कर्मोंको जलाने या विदीर्ण करनेमें उसी प्रकार असमर्थ होता है जिस प्रकार नख और दाढसे रहित सिंह गजेन्द्रोका विदारण करनेमे असमर्थ होता है । जो साधु विना ध्यानके कर्मो को क्षय करना चाहता है उसकी स्थिति १. जह चिर सचियमघणमणलो पवन सहियो दुय दइ । तह कम्मेघणममिय खणेण झाणारणलो डहइ || (ध्यानशतक) २. सर्वाङ्गीण विप यद्वन्मत्रशक्त्या प्रकृष्यते ।
तद्वत्कर्मविषं कृत्स्न ध्यानशक्त्याऽपसार्यते ॥ ( आर्ष २१-२१३ ) ३. झागेण विणा जोई असमत्थो होइ कम्मणिड्डहणे । दाढा - हर- विहीणी जह सोहो वर- गयदा ।। (ज्ञानसार)