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ध्यान - शास्त्र
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'कर्मों के बन्धनों का विध्वस और ऊर्ध्वगमनका स्वभाव होनेसे मुक्त आत्मा एक क्षण (समय) मे लोकशिखरके अग्रभागको प्राप्त. होता है - वहाँ पहुँच जाता है ।'
व्याख्या - मोक्ष होने पर यह आत्मा कहाँ जाता है, क्यो कर जाता अथवा कौन ले जाता है और कितने समयमे जाता है इन तीनो बातो का इस पद्यमे निर्देश किया गया है। जानेका स्थान लोक - शिखरका अग्रभाग है, वहाँ इसे कोई लेकर नही जाता, बन्धनका अभाव हो जानेसे गतिका परिणाम ही ऊपरको होता है, जैसे मृत्तिकासे लिप्त तुम्बी जो पानी मे डूबी रहती है वह लेपके उतर जाने पर एकदम ऊपर आ जाती है। दूसरे जीवका ऊर्ध्वगमनस्वभाव होनेसे भी वह लोकके अग्रभाग तक पहुँच जाता है, जैसे अग्नि- शिखा किसी पवनादि बाधक कारणके न होने पर स्वभावसे हो ऊपरको जाती है । मुक्तात्माको लोकशिखरके अग्रभाग पर पहुँचने के लिये केवल एक क्षण - परिमित समय लगता है । क्षणकालके उस सबसे छोटे ( सूक्ष्म से सूक्ष्म) अशको कहते हैं जिसका विभाग नही होता, समय भी उसका एक नामान्तर है, जैसा कि 'तत्त्वार्थसूत्र' मे जीवकी अविग्रहा - गतिका निर्देश करते हुए उसे एकसमया' बतलाया है ।
ऊर्ध्वगति स्वभाव होने पर भी मुक्तात्मा लोकशिखरके अग्रभाग पर ही क्यो ठहर जाता है-आगे अलोकाकाशमे गमन क्यों नही करता ? इसका उत्तर इतना ही है कि अलोकाकाशमे गति-सहायक 'धर्मद्रव्य' का अभाव है, जिसे 'तत्त्वार्थसूत्र' मे 'धर्मास्तिकायाभावात् ' इस सूत्र ( १०-८) द्वारा व्यक्त किया गया है, और इससे यह साफ मालूम होता है कि अनुकूल निमित्तके अभाव मे स्वभाव अथवा केवल उपादानकारण अपना कार्य करनेमे समर्थ
१ एक समयाऽविग्रहा । ( त० सू० २ - २६ )
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