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तत्त्वानुशासन नहीं होता। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कार्योत्पत्तिमे वाह्य और अन्तरग (निमित्त तथा उपादान) दोनो प्रकारके कारणोसामग्रीको समग्रताओ द्रव्यगत-स्वभावके रूपमे उल्लेखित किया है।
मुक्तात्माके आकारका सहेतुक निर्देश पुस संहार-विस्तारौ ससारे कर्म-निर्मितौ । मुक्तौ तु तस्य तौ न स्तः क्षयात्तद्धतु-कर्मणाम् ॥२३२॥ ततः सोऽनन्तर-त्यक्त-स्वशरीर-प्रमाणतः । किंचिदूनस्तदाकारस्तत्रास्ते स्व-गुणात्मकः ॥२३३॥
'संसारमें जीवके संकोच और विस्तार दोनो कर्म-निर्मित होते है। मुक्ति प्राप्त होने पर उसके वे दोनो नहीं होते; क्योंकि उनके हेतुभूत कर्मोका-नामकर्मकी प्रकृतियोका-क्षय हो जाता है । अत. मुक्तिमे वह पुरुष तत्पूर्व छोड़े हुए अपने शरीरके प्रमाणसे कुछ ऊन-जितना तदाकार-रूपमे अपने गुणोंको आत्मसात् किये-अपनाये हुए- रहता है।'
व्याख्या-ससारावस्थामे जिस प्रकार जीवके आकारमे हानिवृद्धि अथवा घट-बढ होती है-वह कर्मोदयवश जिस जातिके शरीरको धारण करता है उस शरीरके आकारका ही हो रहता है, उस शरीरमे भी यदि बाल्यावस्थादिके कारण हानि-वृद्धि होती है तो उस आत्माके आकारमे भी हानि-वृद्धि हो जातो है-उस प्रकार मुक्तावस्थामे नही होती, क्योकि वहाँ उस हानि-वृद्धिके निमित्तभूत 'नाम'कर्मका अभाव हो जाता है। ऐसी स्थितिमे मुक्तात्माका आकार प्रायः उस शरीर ही जितना रह जाता है
१. वाह्यतरोपाधिसमग्रतेय कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभाव ॥(स्वयभू०)