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तत्त्वानुशासन का नाम ही एकाग्रचिन्ता-निरोध है', जो ध्यानका सामान्य लक्षण है। ऐसा ध्यान सचितकर्मोकी निर्जरा तथा नये कर्मोके आस्रवको रोकनेरूप सवरका कारण होता है । इसीको २४ वें पद्य मे 'मुक्तिहेजिनोपज्ञ निर्जरा-सवर-क्रियः' इन पदो-द्वारा और १७८ वें पद्यमे 'क्षपयजितान्मलान्' तथा 'संवृणोत्यप्यनागतान्' इन पदोके द्वारा व्यक्त किया गया है। एकाग्रध्यानमे निर्जरा और सवर दोनोकी शक्तियाँ होती हैं।
___घ्यानके लक्षणमे प्रयुक्त शब्दोका वाच्यार्थ एक 'प्रधानमित्याहुरग्रमालम्बनं मुखम् । चिन्ता स्मृतिनिरोधस्तु तस्यास्तत्रैव वर्तनम् ॥५७॥ द्रव्य-पर्याययोर्मध्ये प्राधान्येन यदर्पितम् । तत्र चिन्ता-निरोधो यस्तद्ध्यानं वभजिनाः ॥५॥ '(एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यान' इस ध्यान-लक्षणात्मक वाक्यमे) 'एक' प्रधानको और 'अन' आलम्बनको तथा मुखको कहते हैं । 'चिन्ता' स्मृतिका नाम है और 'निरोध' उस चिन्ताका उसी एकानविषयमे वर्तनका नाम है। द्रव्य और पर्यायके मध्यमें प्रधानतासे जिसे विवक्षित किया जाय उसमे चिन्ताका जो निरोध है-उसे अन्यत्र न जाने देना है-उसको सर्वज्ञ भगवन्तोंने 'ध्यान' कहा है। १. नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती तस्या अन्याऽशेषमुखेभ्यो व्यावत्यं ___ एकस्मिन्नग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते । (सर्वार्थ ० ६-२७) २. प्राधान्यवाचिनो वैकशब्दस्य ग्रहणम् । (तत्त्वा० वा० ६-२७-२०) ३. अग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति वाऽग्य मुखम् (तत्त्वा० वा०-६-२७-३
अर्थपर्यायवाची वा अनशब्द । (तत्त्वा० वा० ६-२७-७) ४. मु चिन्ता स्मृति निरोधं तु । जु निरोध ।