________________
१०८
तत्त्वानुशासन ह्रीकारके वेष्टन अथवा परिक्रमणका जो रूप बनता है, वही 'त्रि परीत्य च मायया' इस वाक्यका यहाँ अभिप्राय है।
विवक्षित कमलादिके रूपमे ध्यानका यह विषय बहुत ही गहन-गम्भीर तथा अर्थ-गौरवको लिये हुए है और आत्मविकासमे बहुत बड़ा सहायक जान पडता है। इसी व्यानका उल्लेख मुनि श्रीपद्मसिंहने अपने 'ज्ञानसार' ग्रन्थ (वि० १०८६) की निम्न दो गाथाओमे किया है और उसका फल इच्छित कार्यकी तत्क्षण सिद्धि बतलाया है -
श्रदलकमलमज्झे अरुह वढेइ परमबोहिं । पत्तेसु तह य वग्गा दलतरे सत्त वण्णा (१) य॥२६॥ गणहरवलयेण पुणो मायावीएण घरयलक्कतं । जज इच्छइ कम्म सिज्झइ त त खणद्धण ॥२७॥ 'अकारादि-हकारान्ता मंत्राः परमशक्तय. । स्वमण्डल-गता ध्येया लोकद्वय-फलप्रदाः ॥१०७॥
'अकारसे लेकर हकार पर्यन्त जो मत्ररूप अक्षर हैं वे अपने अपने मण्डलको प्राप्त हुए परम शक्तिशाली ध्येय हैं और दोनो लोकके फलोको देनेवाले हैं।'
व्याख्या-यहां मत्ररूपमे जिन अक्षरोकी सूचना को गई है उनमे वर्णमालाके सभी अक्षर आजाते हैं, क्योकि वर्णमालाके आदिमे 'अ' और अन्तमे 'ह' अक्षर है। सब अक्षरोंके नाम इस प्रकार है-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ म म., ये १६ अक्षर स्वरवर्ण कहलाते हैं, क ख ग घ ड, च छ ज झ ञ, १ अकारादि-हकारान्ता वर्णा मत्रा प्रकीर्तिता । सर्वज्ञरसहाया वा सयुक्ता वा परस्परम् ।।
-विद्यानुशासन २-३ तथा मत्रसारसमुच्चय २-५