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ध्यान-शास्त्र
१५१ तुच्छ नही है । ध्यानके लक्षणमे प्रयुक्त 'निरोध' अथवा 'रोध' शब्दका अभाव अर्थ करने पर उसका यही आशय लिया जाना चाहिये, न कि सर्वथा चिन्ताके अभावरूप, जिससे ध्यानका हो अभाव ठहरे। अन्य सब चिन्ताओके अभावके विना एकचिन्तास्मक जो आत्मध्यान है वह नही बनता ।
स्वसवेदनका लक्षण वैद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः । तत्स्व-संवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभव दृशम् ॥१६१॥ 'योगीके अपने आत्माका जो अपने द्वारा वद्यपना और वेदकपना है उसको स्व-संवेदन कहते हैं जो कि आत्माका दर्शनरूप अनुभव है।'
व्याख्या-स्वसवेदन आत्माके उस साक्षात् दर्शनरूप अनु भवका नाम है जिसमे योगी आत्मा स्वय ही ज्ञेय तथा ज्ञायकभावको प्राप्त होता है-अपनेको स्वय ही जानता, देखता अथवा अनुभव करता है। इससे स्वसवेदन, आत्मानुभवन और आत्मदर्शन ये तीनो वस्तुत: एक ही अर्थके वाचक हैं, जिनका यहाँ स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे एकत्र सग्रह किया गया है।
___ स्वसवेदनका कोई करणान्तर नहीं होता स्व-पर-ज्ञप्तिरूपत्वान्न तस्य करणान्तरम् । ततश्चिन्तां परित्यज्य स्वस वित्यैव वेद्यताम् ।।१६२॥ 'स्व-परको जानकारीरूप होनेसे उस स्वसवेदन अथवा स्वानुभवका प्रात्मासे भिन्न कोई दूसरा करण-ज्ञप्तिक्रियाकी निष्पत्तिमे साधकतम-नहीं होता। अतः चिन्ताका परित्याग
१. मु मे कारणान्तरम् ।