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ध्यान-शास्त्र 'अहंद्र प अथवा सिद्ध-रूपसे ध्यान किया गया (यह प्रात्मा) चरमशरीरी ध्याताके मुक्तिका और उससे भिन्न अन्य ध्याताके भक्तिका कारण बनता है, जिसने उस ध्यानसे विशिष्ट पुण्यका उपार्जन किया है।'
व्याख्या~यहाँ, अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूप दोनो प्रकारके आत्मध्यानसे मुक्ति तथा भुक्ति-प्राप्तिकी सूचना करते हुए, यह स्पष्ट किया गया है कि जो चरमशरीरो है-जिसको अपने वर्तमान शरीरके अनन्तर दूसरा शरीर धारण करना नहीं है-उसको तो मुक्तिकी प्राप्ति होती है और जो चरमशरीरो नही है-जिसे अभी ससारमे दूसरा जन्म लेना है-उसे भुक्तिकी-स्वर्गादिके सातिशय भोगोकी-प्राप्ति होती है। ज्ञान श्रीरायुरारोग्य' तुष्टिः पुष्टिर्वपुर्धतिः । यत्प्रशस्तमिहाऽन्यच्च तत्तद्ध्यातुः प्रजायते ।।१६८।। 'ज्ञान, श्री (लक्ष्मो, विभूति, वाणी, शोभा, प्रभा, उच्चस्थिति) आयु, आरोग्य, सन्तोष, पोष, शरीर, धैर्य तथा और भी जो कुछ इस लोकमे प्रशस्तरूप वस्तुएँ हैं वे सब ध्याताको (इस ध्यानके बलसे) प्राप्त होती हैं।'
व्याख्या-यहां आत्माके अर्हत्सिद्धरूप 'ध्यानसे होनेवाले लाभोकी सूचना की गई है और यह बतलाया गया है कि और भी जो कुछ अच्छी वस्तुओका लाभ है वह सब इस ध्यानसे प्राप्त होता है। तद्ध्यानाविष्टमालोक्य प्रकम्पन्ते महाग्रहाः । नश्यन्ति भूत-शाकिन्यः क्रूराः शाम्यन्ति च क्षणात्॥१९६ १. मे श्रीरारोग्य । २. मु तुष्टिपुष्टि ।