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ध्यान - शास्त्र
'तैजसी - प्रभृतीबिस्रद्धारणाश्च यथोचितम् । निग्रहादोनुदप्राणां ग्रहाणां कुरुते द्रुतम् ॥ २०२ ॥
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' जो सत्री - मन्त्राराधक योगी - शरीरको सकलीक्रियासे सम्पन्न किए हुए है, महामुद्रा, महामन्त्र तथा महामण्डलका आश्रय लिए हुए है और तैजसी आदि धारणाओको यथोचितरूपमें धारण किए हुए है वह पार्श्वनाथ होता हुआ — अपनेको पार्श्व - नाथरूपमे ध्याता हुआ - शीघ्र ही उग्रग्रहों के निग्रहादिकको करता है ।'
व्याख्या - यहाँ देवताविशेषके ध्यान करनेका निरूपण करते हुए प्रथम ही श्रीपार्श्वनाथके ध्यानको लिया है । इस ध्यान- द्वारा पार्श्वनाथ होता हुआ मन्त्री - योगी शीघ्र ही उग्रग्रहोका निग्रह आदिक करनेमे समर्थ होता है। पार्श्वनाथके ध्यान द्वारा इस कर्म को करनेवाला योगी 'सकलीकृत-विग्रह' होना चाहिये, महामुद्रा, महामन्त्र और महामण्डलको आश्रित किये हुए होना चाहिए और साथ ही तैजसी (आग्नेयी) आदि धारणाओको यथोचित - रूपमे धारण किये हुए होना चाहिए ।
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यहाँ उल्लिखित सकलीकरण, महामुद्रा, महामन्त्र, महामण्डल, और तैजसी आदि धारणाओका क्या रूप है यह सब उस मत्राराधक योगीके जाननेका विषय हैं, जिसे यथावश्यक ग्रन्थान्तरोसे जानना चाहिये ।
स्वयमाखण्डलो भूत्वा महीमण्डल' - मध्यगः ।
किरीटी कुण्डली वज्री पीत-भूषा 'डम्बरादिकः ॥ २०३ ॥
१. मु तैजसी प्रभृतिर्विद्वाणाश्च । २. मु महामडल ।
३. मु मे किरीटकु डली । ४. मुमूषा ।