________________
१५४
तत्त्वानुशासन इन्द्रियाँ वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-विशिष्ट पदार्थको ही देखती हैं और आत्मा इन वर्णादिगुणोसे रहित है । अनुमानादि-द्वारा तर्क करनेवाले भी उसे देख नहीं पाते, क्योकि (पराश्रित होनेसे) अपनी तकणामे वे सदा अस्पष्ट बने रहते हैं। वितर्क श्रुतको कहते है और श्रत अनिन्द्रिय (मन) का विषय है । इससे मन भी आत्माको देख नही पाता, यह यहाँ फलितार्थ हुआ।
इन्द्रिय-मन का व्यापार रुकनेपर स्वस वित्ति-द्वारा आत्मदर्शन उभयस्मिन्निरुद्ध तु स्याद्विस्पष्टमतीन्द्रियम् । स्वसवेद्यहि तद्रूपं स्वसं वित्यैव दृश्यताम् ।।१६७॥
'इन्द्रिय और मन दोनोके निरुद्ध होने पर अतीन्द्रियज्ञान विशेषरूपसे स्पष्ट होता है (अतः) अपना वह रूप जो स्वसवेदनके गोचर हैं उसे स्वसंवेदनके द्वारा ही देखना चाहिये।'
व्याख्या-जव इन्द्रिय और मन दोनोके द्वारा आत्मा दृश्य नही है तब उसे किसके द्वारा देखा जाय ? इस प्रश्नको लक्ष्यमे लेकर ही प्रस्तुत पद्यका अवतार हुआ जान पडता है। इसमे बतलाया है कि जव इन्द्रिय और मन दोनोका व्यापार निरुद्ध होता है-रोक लिया जाता है तब अतीन्द्रिय-ज्ञान प्रकट होता है, जो कि अपनेमे विशेषत स्पष्टता अथवा विशदताको लिए रहता है । उस ज्ञानरूप स्वसवित्तिके द्वारा ही उस आत्मस्वरूपको देखना चाहिये जो कि स्वसवेद्य है-अन्य किसीके द्वारा वह जाना नही जाता। इससे आत्म-दर्शनके लिये इन्द्रिय और मनके १. वितर्क श्रुतम् (त० सू० ६-४३)। २. श्रुतमनिन्द्रियस्य (त० सू० २-२१) ।