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तत्त्वानुशासन व्याख्या-यहाँ उस योगीके ध्यानको आत्मध्यान न बतलाकर मू रूप मोह बतलाया है जो समाधिमे स्थित होकर भी आत्माको ज्ञानस्वरूप अनुभव नहीं करता । और इससे यह साफ फलित होता है कि जो योगी वस्तुत: समाधिमे स्थित होगा वह आत्माको ज्ञानस्वरूप ही अनुभव करेगा, जिसे ऐसा अनुभव नहीं होगा उसकी समाधिको समाधि न समझ कर मावान् मोह समझना होगा।
आत्मानुभवका फल 'तमेवानुभवश्चायमेकायं परमच्छति ।
तथाऽऽत्माधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम् ॥१७०॥ 'उस ज्ञान-स्वरूप प्रात्माको अनुभवमे लाता हुआ यह समाधिस्थ योगी परम-एकाग्रताको प्राप्त होता है तथा उस स्वाधीन आनन्दका अनुभव करता है जो कि वचनके अगोचर है।'
व्याख्या-~-यहां, आत्मानुभवके फलको बतलाते हुए, लिखा है, कि जो समाधिस्थ योगी उस ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करता है वह परम एकाग्रताको और उस स्वाधीन सुखको प्राप्त होता है जिसे वाणीके द्वारा नही कह सकते । इससे स्पष्ट है कि आत्माका दर्शन होने पर ध्यानकी एकाग्रता बढ जाती है और उससे जिस स्वाभाविक आत्मीय आनन्दकी प्राप्ति होती है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
१. मु तदेवा । २. सि मात्मकायमृच्छति । ३. सि जु तदा। ४. मामेवाऽह तथा पश्यन्नेकाम्य परमश्नुवे ।
भजे मत्कन्दमानन्द निर्जरा-सवरावहम् ।। (मध्या०र० ४७)