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द्रव्यध्येयको पिण्डस्थध्येयकी सज्ञा 'ध्यातः पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः । ध्येयं पिण्डस्थमित्याहरतएव च केचन ॥१३४॥
'ध्येयपदार्थ चूँकि ध्याताके शरीरमें स्थितरूपसे ही ध्यानका विषय किया जाता है इसलिये कुछ प्राचार्य उसे 'पिण्डस्यध्येय' कहते है। _ व्याख्या-इस द्रव्यध्येयको कुछ आचार्योंके मतानुसार'पिण्डस्थध्येय' भी कहते हैं और उसका कारण यह है कि वह द्रव्यध्येय ध्याताके शरीरसे बाहर नही किन्तु उसके शरीरमे स्थित-जैसा ध्यानका विषय बनाया जाता है। किन पूर्ववर्ती आचार्योका ऐसा युक्तिपुरस्सर मत है यह बात अनुसघान-द्वारा स्पष्ट किये जानेके योग्य है । हाँ, श्रीपद्मसिंह मुनिने अपने 'ज्ञानसार' ग्रन्थ (स० १०८६) मे ऐसे ध्यानके विषयभूत ध्येयको पिण्डस्थध्येयके रूपमे उल्लेखित ज़रूर किया है, जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओसे प्रकट है -
णिय-णाहि-कमलमज्झे परिद्विय विष्फुरत-रवितेय । झाएह अरुहरूवं झारणं त मुणह पिण्डत्य ।।१९।। झायह णिय-कुरमझे भालयलेहिय-कठ-देसम्मि । जिणरुव रवितेय पिंडत्थ मुणह झाणमिण ॥२०॥
ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थोमे पिण्डस्थध्यानको पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसी पाच धारणाओके रूपमे ही वर्णित किया है। १. मु धातुपिण्डे स्थितेश्चैव । २. मु ध्येयपिण्डस्थ । ३. मु केवल । ४. " पिण्डस्थ पच' विज्ञेया धारणा वीर-वर्णिता ।
पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसना चाऽथ वारुणी। तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम् ॥” (ज्ञाना० ३७-२-३) "पार्थिवी स्यादाग्नेयी मारुती वारुणी तथा । तत्र(त्त्व)भू पचमी चेति पिण्डस्थे पच धारणा ॥"(योगशा० ७-६)
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