________________
१४६
तत्त्वानुशासन दूसरेका अस्तित्व बनता नही । इसीसे सत्के स्पष्टीकरणमे उसके सत्-असत् दोनो रूपोको दिखाया गया है।
यहाँ सत्के विपयमे स्वामी समन्तभद्रकी प्रतिक्षण-ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मक-दृष्टिसे भिन्न उन्हीकी दूसरी स्वद्रव्यादि-चतुष्टयकी दृष्टिको अपनाया गया है, जैसा कि उनके देवागम-गत निम्नवाक्यसे स्पष्ट जाना जाता है .
सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१॥
इसमें बतलाया है कि सर्वद्रव्य स्वरूपादि-चतुष्टयकी दृष्टिसेस्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षासे-सत्रूप ही हैं और पररूयादि-चतुष्टयकी दृष्टिसे-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी विवक्षासे ~असत्रूप ही हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो सत्-असत् दोनोमे किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी; क्योकि दोनो परस्पर अविनाभाव-सम्बन्धको लिए हुए हैं-एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नही बनता । स्वरूपादि-चतुष्टयरूप सतद्रव्य यदि परद्रव्यादि-चतुष्टयके अभावको अपनेमे लिये हुए नहीं है तो उसके स्वरूपकी कोई प्रतिष्ठा ही नहीं बनती और न नब ससारमे किसी वस्तुकी व्यवस्था ही बन सकती है। यन्न चेतयते किंचिन्ताऽचेतयत् किचन । यच्चेतयिष्यतेनैव तच्छरीरादि नाऽस्म्यहम् ॥१५॥
'जो कुछ चेतता-जानता नहीं, जिसने कुछ चेता-जाना नहीं 'और जो कुछ चेतेगा-जानेगा नहीं वह शरीरादिक मै नहीं हैं।' १. जैसा कि स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत देवागमके निम्नवाक्योसे विदित है
'अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येकमिणि । विशेषणत्वात्साधयं यथा भेद-विवक्षया ॥१७॥ नास्तित्व प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्यकर्मिणि । विशेषणत्वाधियं यथाऽभेद-विवक्षया ॥१८॥