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ध्यान-शास्त्र
१४५ लोकाकाशमे व्याप्त होकर लोकाकाशरूप आकार नहीं बनाते। किन्तु आकार आत्माका प्राय अन्तिम शरीरके आकार-जितना ही रहता है, क्योकि आत्म-प्रदेशोमे सकोच और विस्तार कर्मके निमित्तसे होता था, जब कर्मोंका अस्तित्व नही रहता तब आत्माके प्रदेशोका सकोच और विस्तार सदाके लिये रुक जाता है। इसी बातको ग्रन्थमे आगे 'पुसः संहार-विस्तारौ संसारे कर्मनिमितौ' इत्यादि पद्यो (२३२, २३३) के द्वारा स्पष्ट किया गया है। "सन्नेवाऽह सदाऽप्यस्मि स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असन्नेवाऽस्मि चात्यन्तं पररूपाद्यपेक्षया ॥१५४॥ ‘स्वरूपादि-चतुष्टयको दृष्टिसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभावकी अपेक्षासे–मै सदा सत्रूप ही हूँ और पर-स्वरूपादिकी दृष्टिसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षासे-अत्यन्त असत्रूप ही हूँ।' ___ व्याख्या-पिछले पद्यमे 'सद्व्यमस्मि' यह जो भावनावाक्य दिया है उसीके स्पष्टीकरणरूपमे इस पद्यका अवतार हुआ है । यहाँ आत्मद्रव्य सतरूप ही नही किन्तु असत्रूप भी है, इसका सहेतुक प्रतिपादन किया है, लिखा है कि-आत्मा स्वद्रव्यक्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा सत्रूप ही है और परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावकी अपेक्षा असत्रूप ही है। इस कथनका पूर्वकथनके साथ कोई विरोध नहीं है, क्योकि आत्माको सत् और असत् दोनो रूप बतलाना अपेक्षा-भेदको लिए हुए है—एक ही अपेक्षासे सत् तथा असत्-रूप नही कहा गया है। वास्तवमे इस सत् (अस्ति) और असत् (नास्ति) का परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है-एकके विना १. सन्नेवाऽह मया वेद्य स्वद्रव्यादि-चतुष्टयात् ।
स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मत्वादसन्नेव विपर्ययात् ।।-अध्यात्मरहस्य ३१