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तत्त्वानुशासन मैं इस संसारमें जीवादि-द्रव्योकी यथार्थताके ज्ञानस्वरूप प्रात्माको आत्माके द्वारा प्रात्मामें देखता हुआ (अन्य) वस्तुप्रोमें उदासीन रहता हूं--उनमे मेरा कोई प्रकारका रागादिक भाव नही है।'
व्याख्या इस श्रौती-भावनामे आत्मा अपनेमे स्थित हुआ अपने द्वारा अपने आपको इस रूपमे देखता है कि वह जीवादिद्रव्योके यथार्थ-ज्ञानको लिये हुए है, और इस प्रकार देखता हुआ वह अन्य पदार्थो से स्वत विरक्तिको प्राप्त होता है उनमे उसकी रुचि नहीं रहती। सद्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता दृष्टा सदाऽप्युदासीनः । स्वोपात्त-देहमात्रस्ततः पर' गगनवदमूर्तः ॥१५३॥
'मैं सदा सत् द्रव्य हूं; चिद्रूप हूं, ज्ञाता-दृष्टा हूं, उदासीन हूं, स्वग्रहीत देह परिमाण हूं और शरीर-त्यागके पश्चात् आकाशके समान अमूर्तिक हूं।'
व्याख्या इस श्रौतीभावनामे आत्मा अपनेको सद्रव्य, चिद्रव्य और उदासीनरूप कैसे अनुभव करता है, इसका स्पष्टीकरण अगले पद्योमे किया गया है। ज्ञाता-दृष्टा पदोका वाच्य स्पष्ट है । 'स्वोपात्तदेहमात्र' इस पदके द्वारा आत्माके आकारकी सूचना की गई है। ससार-अवस्थामे आत्मा जिस शरीरको ग्रहण करता है उस शरीरके आकार-प्रमाण आत्माका आकार रहता है। शरीरका सम्बन्ध सर्वथा छूट जाने पर मुक्ति-अवस्थामे यद्यपि आत्मा आकाशके समान अमूर्तिक हो जाता है परन्तु आकाशके समान अनन्तप्रदेशी नही हो जाता, उसके प्रदेशोकी सख्या असख्यात ही रहती है और वे असख्यातप्रदेश भी सारे
१ सि जु देहमात्रः स्मृत पृथम् ।